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________________ विजयोदया टीका ३५३ विलासपलाशेन, सौकुमार्याङ्करेण दिगङ्गनामुखवासायमानसौरभेण विद्रुमाधरपल्लवेन, निबिडोन्नतवृत्तस्तनफलेन, मनोभवदक्षिणानिलप्रेरणान्दोलितेन, ललितभुजशाखाप्रतानेन, स्फुरत्तपनीयमय रशनावेदिकापरीतकामनीरभरितविशालजघनसरोविभूषणेन, मुखरनूपुरभ्रमरकृतकलकलेन देवकन्यालतावनेन परिवृतानामपि परै गैस्तृप्तिन किं पुनरितरमानवानां । अपि च तीव्रतरपुंवेदोदयानलजनितचेतोविदाहानां नैवौषधं वामलोचनासंगमः तापप्रकर्षानुवंधत्वात् । रूपयौवनविलासचातुर्यसौभाग्यादीनां प्रकर्षापकर्षरूपेणावस्थितत्वादङ्गनासु । तास्ताः पश्यतोऽपि उत्कण्ठानुपरतमुपजायमाना विदाहमावहति दुर्वहं । तास्त्यवत्वा चेमं यान्ति मृति वा ढोकन्ते, परैर्बलिभिर्वापन्हियन्ते । स्वयं वा दुर्विमोचतमपातकयमपाशेनाकृष्यमाणो विहाय तानि विवृतमुखो, निर्मिमेषनयनो नितान्तरोदनाच्छादितलोहितलोचना जहाति । तासां तनवोऽपि स्फटिकमालेवोपाश्रितगुणग्राहिण्यः ताश्चास्थि ररागाः संध्यासमयजलदलेखेव दुर्लभाश्च । स्त्रीवस्त्रगन्धमाल्यादींश्च लब्धानप्य पहरन्ति वलिनः इति महद्भयं, न च तेऽर्पयन्ति । तदर्जनार्थ पटकर्मसु प्रयतितव्यं । तानि च संदिग्धफलानि बहतरायासमूलानि हिंसादिसावधक्रियापरतन्त्राणि, दुर्गतिवर्धनानि इत्येवमात्मिका भोगनिर्वजनी । शरीरं पुनरिदमशुचिनिधानं, आत्मनो महान् भारः, न चात्रास्ति किंचित्सारभूतं । सन्निहितानेकापायं व्याधिसस्यानां क्षेत्रं, जराडाकिनीपितृगृहं । कि स्कन्धवाली हैं, मन और नेत्रोंको प्रिय रूप सौन्दर्यरूपी पुष्पोंसे शोभित हैं, विलासरूपी पत्तोंसे वेष्ठित हैं, सौकुमार्य उनका अंकुर है, दिशारूपी अंगनाओंके मुखकी सुवास जैसी उनकी सुगन्ध है, मंगेके समान उनके ओष्ठरूपी पल्लव हैं, घने ऊँचे गोल स्तनरूपी फल हैं, कामदेवरूपी दक्षिण वायुकी प्रेरणासे वे हिलती हैं, ललित भुजारूपी उनका शाखाविस्तार है, चमकदार सोनेकी करधनीरूपी वेदिकासे घिरे और कामजलसे भरे विशाल जघनरूपी सरोवरसे भूषित है, बजते हुए नूपुररूपी भौरोंकी गुंजारसे गुंजित हैं। ऐसी देवांगनाओंसे घिरे हुए देवोंकी भी जव भोगोंसे तृप्ति नहीं होती तव अन्य मनुष्योंका तो कहना ही क्या है ? तथा जिनका चित्त तीव्रतर पुरुषवेदके उदयरूपी अग्निसे जल रहा है, स्त्रियोंका संगम उनकी औषधी नहीं है। उससे तो उनका सन्ताप और भी अधिक बढ़ेगा; क्योंकि स्त्रियोंमें रूप, यौवन, विलास, चतुरता, सौभाग्य आदि कमती बढ़ती पाया जाता है। उन-उन स्त्रियोंको देखकर निरन्तर उत्कण्ठा उत्पन्न होकर ऐसी दाह होती है जिसको सहना कठिन होता है। वे स्त्रियाँ पतिको छोड़कर चली जाती हैं, या मर जाती हैं अथवा दूसरे बलवान् पुरुष उन्हें हर लेते हैं । अथवा जिससे छूटना किसी भी तरह सम्भव नहीं है उस मृत्युके फन्देसे खिंचकर मनुष्य, मह खोले, आँखें पथराये हुए स्वयं, अत्यन्त रुदन करनेसे लाल आंख हुई स्त्रीको स्वयं छोड़कर चला जाता है। उन स्त्रियोंके शरीर भी स्फटिकको मालाकी तरह जो पासमें आता है उसीके गुणोंको ग्रहण करनेवाले होते हैं। जैसे सन्ध्याकालीन मेघोंका रंग अस्थिर होता है वैसे ही स्त्रियोंका अनुराग भी अस्थिर होता है। तथा वे दुर्लभ होती हैं क्योंकि स्त्री, वस्त्र, गन्धमाला आदिको बलवान् हर लेते हैं और देते नहीं हैं। इस प्रकार बड़ा भय रहता है। स्त्रीकी प्राप्तिके लिए छह कर्मोको करना पड़ता है। उनका फल संदिग्ध होता है। उनके लिए बड़ा परिश्रम करना पड़ता है। तथा वे षट्कर्म हिंसा आदि सावद्य क्रियाके अधीन होते हैं उनमें हिंसा आदि होती है। अतः वे दुर्गतिको बढ़ाते हैं । इत्यादि कथा भोगोंसे वैराग्य उत्पन्न करती है। तथा यह शरीर अपवित्रताकी खान है, आत्माके लिए बड़ा भाररूप है । इसमें कुछ भी सार नहीं है इसके साथ अनेक संकट लगे हैं। व्याधिरूपी धानके १. प्याहर-आ० मु० । २. तर्पयन्ति आ० मु०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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