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________________ प्रस्तावना टीकाकारने उपकरणवकुश और शरीरवकुशको भी पार्श्वस्थमुनि कहा है। तत्त्वार्थसूत्रमें वकुशमुनिको भी निर्ग्रन्थके भेदोंमें कहा है और तदनुसार ही सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक आदि टीकाओंमें कहा है। किन्तु विजयोदया टीकाकार लिखते हैं-जो रातमें मनमाना सोता है, संस्तरा इच्छानुसार लम्बा चौड़ा बनाता है वह उपकरणवकुश है। जो दिनमें सोता है वह देहवकुश है । ये भी पार्श्वस्थ हैं। सारांश यह है कि जो सुखशील होनेके कारण ही अयोग्यका सेवन करता है वह सर्वथा पार्श्वस्थ है । कुशील--जिसका कुत्सित शील प्रकट है वह कुशील है। उसके अनेक भेद टीकाकारने कहे हैं । तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओंमें कुशीलको भो निर्ग्रन्थ मुनियोंमें गिनाया है। संसक्त--जो नटकी तरह चारित्र प्रेमियोंमें चारित्र प्रेमी और चारित्रसे प्रेम न करनेवालों- . में चारित्रके अप्रेमी बनते हैं वे संसक्त मुनि हैं। वे पञ्चेन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त रहते हैं। स्त्रियोंके विषयमें रागभाव रखते हैं । ऋद्धिगारव, रसगारव, सातगारवमें लीन रहते हैं। यथाच्छन्द--जो बात आगममें नहीं कही है उसे अपनी इच्छानुसार जो कहता है वह यथाच्छन्द है। जैसे उद्दिष्ट भोजनमें कोई दोष नहीं है क्योंकि भिक्षाके लिए पूरे ग्राममें भ्रमण करनेसे जीवनिकायकी विराधना होती है। जो हाथमें भोजन करता है उसे परिशातन दोष लगता है। आदि. जो क्षपक मरते समय सन्मार्गसे च्यत हो जाते हैं उसका कारण सात गाथाओंसे कहा है। मरणोत्तर विधि-गा० १९६८ से मरणोत्तर विधिका वर्णन है जो आजके युगके लोगोंको विचित्र लग सकती है। यथा ___१. जिस समय साधु मरे उसे तत्काल वहाँसे हटा देना चाहिये । यदि असमयमें मरा हो तो जागरण, बन्धन या च्छेदन करना चाहिये ।।१९६८।। २. यदि ऐसा न किया जाये तो कोई विनोदी देवता मृतक को उठाकर दौड़ सकता है, क्रीड़ा कर सकता है, बाधा पहुंचा सकता है ।।१९७१॥ ३. अनिष्टकालमें मरण होने पर शेष साधुओंमें से एक दो का मरण हो सकता है इसलिये संघकी रक्षाके लिये तृणोंका पुतला बनाकर मृतकके साथ रख देना चाहिये। ४. शवको किसी स्थान पर रख देते हैं । जितने दिनों तक वह शव गीदड़ आदिसे सुरक्षित रहता है उतने वर्षों तक उस राज्यमें सुभिक्ष रहता है । इस प्रकार सविचार भक्त प्रत्याख्यानका कथन करके अन्तमें निर्यापकोंकी प्रशंसा की है। अविचार भक्तप्रत्याख्यान-जब विचार पूर्वक भक्तप्रत्याख्यानका समय नहीं रहता और सहसा मरण उपस्थित हो जाता है तब मुनि अविचार भक्त प्रत्याख्यान स्वीकार करता है ॥२००५।। उसके तीन भेद हैं-निरुद्ध, निरुद्धतर और परम निरुद्ध । जो रोगसे ग्रस्त है, पैरोंमेंशक्ति न होनेसे दूसरे संघमें जाने में असमर्थ है उसके निरुद्ध नामक अविचार भक्त प्रत्याख्यान होता है । इसी प्रकार शेषका भी स्वरूप और विधि कही है ।। इस प्रकार सहसा मरण उपस्थित होनेपर कोई-कोई मुनि कर्मोको नाशकर मुक्त होते हैं । आराधनामें कालका बहुत होना प्रमाण नहीं है; क्योंकि अनादि मिथ्याइष्टि भी वर्द्धन राजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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