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________________ विजयोदया टीका २२१ 'वितिरिय' दत्त्वा । कथं 'विधिणा' विधिना । कथं ? सर्वस्य गणस्य मध्ये तं व्यवस्थाप्य स्वयं बहिः स्थित्वा 'एष निरतिचाररत्नत्रयः आत्मानं युष्मानपि समर्थ:- संसारसागरादुद्धत्तं, अनुज्ञातश्च यया सूरिरयमिति । तत एतदुपदेशानुसारेण भवद्भिः प्रवर्तितव्यं इति । 'अणुदिसाए दु' 'अनु' पश्चादर्थं दिशिविधाने गुरोः पश्चाद्दिशति विधत्ते चरणक्रमं यः सोभिधीयते अगुदिसशब्देन । 'जहिऊण' त्यक्त्वा । 'संकिलेस' संक्लेशं परोपकारसम्पादनायासं । 'भावेइ' भावयति । 'असंकिलेसेण' न विद्यते संक्लेशोऽस्मिन्नित्यसंक्लेशः शुभपरिणामस्तेन भावयति आत्मानं ॥ १७९ ॥ जावंतु' केइ संगा उदीरया होति रागदोसाणं । ते वज्जितो जिणदि हु रागं दोसं च णिस्सङ्गी ॥ १८० ॥ त्यक्तव्य संक्लेशभावनाकल्पस्याख्यानायाचष्टे - कन्दप देवखिब्भिस अभिओगा आसुरी य सम्मोहा | एसा हु सङ्किलिट्ठा पञ्चविहा भावणा भणिदा ॥ १८१ ॥ कंदप्प इत्यादिना । गतिकर्म चतुर्विधं नरकगतिस्तिर्यग्गतिमनुष्यगतिर्देवगतिरित्यत्र देवगतिर्नेकप्रकारा असुरदेवगतिनागदेवगत्यादिप्रपंचेन । कन्दर्पदेवगतेः किल्बिषदेव गते राभियोग्यदेवगतेः, असुरदेवगतेः, सम्मोहदेवगतेश्च कारणभूताः आत्मपरिणामाः । कारणे कार्योपचारोऽन्नप्राणवत् । यथान्नं वै प्राणाः इति 'अनुदिसाए' में अनुका अर्थ है पश्चात् और दिशका अर्थ है विधान । गुरुके पीछे जो चारित्रके क्रमका विधान करता है उसे अनुदिश कहते हैं । सल्लेखनार्थी उसको सर्वसंघके मध्य में स्थापित करके स्वयं बाहर होता है । उस समय वह कहता है - इसका रत्नत्रय निर्दोष है । यह अपना और तुम्हारा भी संसार सागर से उद्धार करने में समर्थ है । मैंने इसे आचार्य बनने की अनुज्ञा दी है । अतः इसके उपदेशके अनुसार आपको चलना चाहिये । संघके भारसे मुक्त होकर वह परोपकार करनेका प्रयत्न रूप संक्लेश छोड़ देता है, अर्थात् परोपकार करना छोड़ देता है और जिसमें संक्लेश नहीं है ऐसे असंक्लेश अर्थात् शुभ परिणामसे आत्माकी भावना भाता है ॥ १७९ ॥ गा०—जितना कोई परिग्रह रागद्वेषकी उदीरणा करने वाला होता है, उसे छोड़ता हुआ निस्संग होकर राग और द्व ेष को निश्चयसे जीतता है || १८० || विशेष- इस पर विजयोदया टीका नहीं है । आशाधर ने भी इस पर टीका नहीं की किन्तु इतना लिखा है कि टीकाकार इस गाथाको नहीं मानता । Jain Education International छोड़ने योग्य संक्लेश भावनाके भेद कहते हैं गा०-- कन्दर्पदेवगति, किल्विषदेवगति, आभियोग्यदेवगति, असुरदेवगति और सम्मोहदेवगतिके कारण भूत आत्म परिणाम यह निश्चयसे पाँच प्रकारकी संक्लिष्ट भावना कही है ॥ १८२ ॥ टी० - गतिकर्मके चार भेद हैं-नरक गति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति । इनमें से देवर्गात असुरदेवगति, नागदेवगति आदिके विस्तारसे अनेक भेद हैं । कन्दर्पदेवगति, किल्विषदेवगति, आभियोग्य देवगति, असुरदेवगति और सम्मोहदेवगतिके कारणभूत आत्मपरिणामोंको उस उस गतिके नामसे कहा है । यहाँ कारणमें कार्यका उपचार किया है जैसे 'अन्न ही प्राण है' । यहाँ १. एतां टीकाकारो नेच्छति - मूलारा० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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