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________________ २२० विजयोदया टीका श्रुतोपदेशं, आचार्यादिवैयावृत्त्यादिकं वा, 'परिभुत्तं' व्यवहृतं । 'उधि' परिग्रहमौषधं अतिरिक्तज्ञानसंयमोपकरणानि वा । 'अणुपधि' ईषत्परिग्रहं । अन्वत्रेषदर्थवृत्तिः अनुदरा कन्येति यथा । कोसावनुपधिरत आह'सेज्ज' सेविज्जदि जदिणा इति व्युत्पत्ती बसतिरुच्यते, तेन सेज्जं वसति । परिकम्मादिउवहद' यतयोऽत्र वसन्तीति प्रमार्जनप्रलेपनादिपरिकर्मणा उपहतं अयोग्यं । 'परिवज्जित्ता' वर्जयित्वा । 'विहरदि' आचरति । 'विदण्हू' क्रमज्ञः ॥१७७॥ श्रित्यनन्तरं किं करोतीत्यत्राह तो पच्छिमंमि काले वीरपुरिससेवियं परमघोरं । भत्तं परिजाणंतो उवेदि अब्भुज्जदविहारं ॥१७८।। 'तो' तस्याः श्रितेः । 'पच्छिमंमि काले' पश्चिमे काले। 'वीरपुरुससेवियं' वीरैः पुरुषराचरितं । 'परमघोरं' अतिदुष्करं । ‘भत्तं परिजाणंतो' आहारं परित्यक्तुकामः । 'उवेदि' उपैति । किं ? अब्भुज्जदविहार' सम्यग्दर्शनादिपरिणामाभि'मुख्य उद्यन्तं विहारं ॥१७८॥ कीदृगसावभ्युद्यतो विहार इत्यत्राचष्टे इत्तिरियं सव्वगणं विधिणा वित्तिरिय अणुदिसाए दु । जहिदूण संकिलेसं भावेइ असंकिलेसेण ॥१७९।। 'इत्तिरियं' कियतः कालस्य । ‘सत्रगणं' संयतानां, आर्यिकाणां, श्रावकाणां, इतरासां च समिति । देता हैं जो कारणवश व्यवहारमें आया है जैसे स्वयं शास्त्राध्ययनके लिये या दूसरोंको शास्त्रका उपदेश देनेके लिये ज्ञान और संयमके उपकरण शास्त्र आदि व्यवहारमें आये हों जो कि स्वयं अपने लिये आवश्यक नहीं है । तथा आचार्य आदिकी वैयावृत्यके लिये औषध आदि व्यवहारमें आई हो। ऐसा परिग्रह कारणभुक्त परिग्रह है। तथा कारणभुक्त अनुपधिको भी त्याग दे। अनुपधिमें अन्का अर्थ ईषत् या किञ्चित् है। यह अनुपधि है 'सेज्ज' । 'जो यतिके द्वारा सेवित होती है' इस व्युत्पत्तिके अनुसार सेज्जाका अर्थ वसति है। तथा 'इसमें यति गण रहेंगे' इस अभिप्रायसे जिस वसतिकी सफाई लिपाई पुताई की गई है वह भी त्याज्य है। इन सबको त्यागकर वह मुनि तपश्चरण करता है ।।१७७॥ श्रितिके अनन्तर वह क्या करता है यह कहते हैं गा०-उस श्रितिके अन्तिम समयमें वीर पुरुषोंके द्वारा आचरित अतिकठिन आहारको त्याग देनेका इच्छुक वह मुनि सम्यग्दर्शन आदि परिणामोंकी अभिमुखतामें तत्पर बिहारको प्राप्त होता है । अर्थात् रत्नत्रयकी मुख्यताको लिये हुए आचरण करता है ।।१७८॥ वह अभ्युद्यत विहार कैसा है, यह कहते हैं गा०-तत्काल गुरुके पश्चात् जो संघका पालन करता है उसे, विधिपूर्वक समस्त संघको सौंपकर संक्लेशको छोड़कर असंक्लेशसे आत्माको भाता है ।।१७९|| टी.-सर्वगणसे मतलब है मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका तथा अन्य जनोंका समूह । १. णामादिमु-आ० मु० । mn Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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