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तृतीयध्यानमाचष्टे
भगवती आराधना
अवितक्कमवीचारं सुहुमकिरियत्तबंघणं तदियसुक्कं । सुहमम्मि कायजोगे भणिदं तं सव्वभावगदं ।। १८८० ।।
'अवितक्कमवीचारं ' श्रुतानालम्बनत्वादवितकं स्वयं श्रुतज्ञानं भवतीति वा अवितकं । पूर्वमालम्बीकृतादर्थादर्थान्तरालम्बनत्वं नाम वीचारो नास्तीत्यविचारं । 'सुहुमकिरियत्तबंधणं' सूक्ष्मक्रियास्येति सूक्ष्मक्रियः आत्मसम्बन्धनमाश्रयोऽस्येति सूक्ष्मक्रियाबन्धनः तृतीयशुक्लं । 'सुहुमम्मि काययोगे' सूक्ष्मकाययोगे सति प्रवृत्तेः भणितं सूक्ष्मक्रियमिति । 'तं सब्वभावगदं' तृतीयं शुक्लध्यानं त्रिकालगोचरानन्तसामान्य विशेषात्मक द्रव्यषट्कयुगपत्प्रकाशनस्वरूपं, द्रव्यषट्क समस्त स्वरूपयुगपत्प्रकाशनमेकमग्रं मुखमस्येति एकमुखतापि विद्यत इति ध्यानशब्दस्यार्थोऽभिमुखे विद्यते । 'एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमित्यत्र' सूत्रे चिताशब्दो ज्ञानसामान्यवचनः । तेन श्रुतज्ञानं क्वचिद्ध्यानमित्युच्यते, क्वचित्केवलज्ञानं क्वचिच्छुतज्ञानं क्वचिन्मतिज्ञानं मत्यज्ञानं वा यतोऽविचलत्वमेव ध्यानं, ज्ञानस्य तस्याविचलत्वं साधारणं सर्वज्ञानोपयोगानां ।। १८८० ॥
वर्तनको वीचार कहते हैं । उसके न होने से दूसरा शुक्लध्यान अवीचार कहा है ।। १८७८-७९ ॥ विशेषार्थ - प्रथम शुक्लध्यान परिमित अनेक द्रव्यों और पर्यायोंका अवलम्बन लेता है और दूसरा शुक्लध्यान एक ही द्रव्यका अवलम्बन लेता है । तथा तीसरे और चतुर्थ शुक्लध्यानोंका विषय समस्त वस्तु है क्योंकि केवलज्ञानका विषय सब द्रव्य और सब पर्याय है । अतः दूसरा शुक्लध्यान शेष तीनोंसे विलक्षण है । प्रथम शुक्लध्यानका स्वामी उपशान्तमोह होता है और दूसरेका क्षीणकषाय होता है तथा तीसरेका स्वामी सयोग केवली और चतुर्थका स्वामी अयोग केवली होता है । अतः स्वामीकी अपेक्षा भी दूसरा शुक्लध्यान शेष तीनोंसे भिन्न है । किन्तु प्रथम शुक्लध्यानकी तरह दूसरा भी सवितर्क है । और पूर्व कथित वीचारका अभाव होनेसे अवीचार ।।१८७८-७९ ।।
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अब तीसरे शुक्लध्यानका स्वरूप कहते हैं—
गा० - टी० – तीसरे शुक्लध्यानका आलम्बन श्रुत नहीं है अथवा वह स्वयं श्रुतज्ञानरूप होता है इसलिये वितर्कसे रहित होता है । पूर्व में आलम्बन किये हुए अर्थको छोड़कर अर्थान्तरके आलम्बन करनेको वीचार कहते हैं । वह भी इसमें नहीं होता । अतः यह अवीचार है । इसमें श्वासोच्छ्वासादिक्रिया सूक्ष्म हो जाती है । तथा यह सूक्ष्मकाययोगके होनेपर होता है इसलिये इसे सूक्ष्मक्रिय कहते हैं । यह तीसरा शुक्लध्यान त्रिकालवर्ती अनन्त सामान्यविशेषात्मक धर्मो से युक्त छह द्रव्योंको एक साथ प्रकाशन करता है अंतः सर्वगत है । एक साथ समस्त छह द्रव्योंके समस्त स्वरूपको प्रकाशन करना ही इसका एकमात्र मुख होनेसे ध्यानका लक्षण 'एकाग्रचिन्ता निरोध:' इसमें रहता है । एकाग्रचिन्तानिरोध में चिन्ता शब्द ज्ञान सामान्यका वाचक है । अतः कहीं श्रुतज्ञानको ध्यान कहते हैं, कहीं केवलज्ञानको ध्यान कहते हैं, कहीं श्रुतअज्ञानको ध्यान कहते हैं, कहीं मतिज्ञान या मतिअज्ञानको ध्यान कहते हैं। क्योंकि निश्चलताका ही नाम ध्यान है । अतः ज्ञानकी निश्चलता सब ज्ञानोपयोगों में साधारण है । आशय यह है कि ज्ञानकी निश्चलताका ही नाम ध्यान है । अतः ध्यानका यह लक्षण सब निश्चल ज्ञानोपयोगों में घटित होता है । केवलीका ध्यान केवल ज्ञान मूलक होता है । अतः वह तो सर्वथा निश्चल ही होता है । इससे सूक्ष्मक्रिय नामक ध्यानमें भी ध्यानका लक्षण घटित होता है || १८८० ॥
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