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________________ विजयोदया टोका ८३७ जेणेगमेव दव्वं जोगेणेगेण अण्णदरगेण । खीणकसाओ ज्झायदि तेणेगत्तं तयं भणियं ॥१८७७॥ 'जेणेगमेव दव्वं जोगेणेगेण अण्णवरगेण' येनैकमेव द्रव्यं अन्यतरण योगेनैकेन सह वृत्तः, क्षीणकषायो ध्याति तेनैकत्वं तद्भणितं एकद्रव्यालम्बनत्वात् । अन्यतरयोगवृत्तेरेवात्मन उत्पत्तरेकत्वं ध्यानं क्षीणकषायस्वामिकं भवेत् ॥१८७७।। जम्हा सुदं वितक्कं जम्हा पुव्वगदअत्थकुसलो य । ज्झायदि ज्झाणं एवं सवितक्कं तेण तं ज्झाणं ।।१७७८॥ अत्थाण वंजणाण य जोगाणं संकमो हु वीचारो। तस्स अभावेण तयं झाणं अविचारमिति वृत्तं ॥१८७९॥ एकद्रव्यालम्बनत्वेन परिमितानेकसर्वपर्यायद्रव्यालम्बनात् प्रथमध्यानात्समस्तवस्तुविषयाम्यां तृतीयचतुर्थाभ्यां च विलक्षणता द्वितीयस्यानया गाथया निवेदिता। क्षीणकषायग्रहणेन उपशान्तमोहस्वामिकत्वात् । सयोग्ययोगकेवलिस्वामिकाम्यां च भेदः । सवितर्कता पूर्ववदेव । पूर्वब्यावणितवीचाराभावादवीचारत्वं ॥१८७८-७९॥ विशेषार्थ-महापुराणके इक्कीसवें पर्वमें ध्यानका वर्णन करते हुए कहा है-अनेकपनेको पृथक्त्व कहते हैं और श्रुतको वितर्क कहते हैं। तथा अर्थ, व्यंजन और योगोंके परिवर्तनको वीचार कहते हैं । इन्द्रियोंको वशमें करनेवाला मुनि एक अर्थसे दूसरे अर्थको, एक वाक्यसे दूसरे वाक्यको और एक योगसे दूसरे योगको प्राप्त होता हुआ इस ध्यानको ध्याता है। यतः तीनों योगोंके धारक और चौदह पूर्वो के ज्ञाता मुनिराज इस ध्यानको करते हैं अतः प्रथम शुक्लध्यान सवितर्क और सवीचार होता है। श्रुतस्कन्धरूपी समुद्र में जितना वचन और अर्थका विस्तार है वह इस शुक्लध्यान में ध्येय होता है और इसका फल मोहनीय कर्मका उपशम या क्षय है। यह ध्यान उपशान्त मोह और क्षीणमोह गुणस्थानमें तथा उपशमश्रेणि और क्षपकश्रेणिके शेष गुणस्थानोंमें माना गया है ।।१८७६॥ गा०-टी०-दूसरे शुक्लध्यानका नाम एकत्ववितर्क है क्योंकि इसमें एक ही. योगका अवलम्बन लेकर एक ही द्रव्यका ध्यान किया जाता है। अतः एक द्रव्यका अवलम्बन लेनेसे इसे एकत्व कहते हैं। यह ध्यान किसी एक योगमें स्थित आत्माके ही होता है । इसका स्वामी क्षीण कषाय गुणस्थानवर्ती मुनि होता है ॥१८७७॥ विशेषार्थ यहाँ एक शब्दका अर्थ है 'प्रधान' और समस्त छह द्रव्योंमें प्रधान एक आत्मा मदेव उपासकाध्ययन ( श्लोक ६२३ ) में कहा है-मनमें किसी विचारके न होते हए जब आत्मा आत्मामें लीन होता है उसे निर्बीजध्यान कहते हैं। यह निर्बीजध्यान एकत्ववितर्क ही है। अतः एक द्रव्य और एक योगका अवलम्बन करनेसे प्रथम शुक्लध्यानसे भिन्न है ॥१८७७॥ गा०-यतः श्रुतको वितर्क कहते हैं और यतः चौदह पूर्वगत अर्थमें कुशल मुनि ही इस ध्यानका ध्याता है। इससे दूसरा शुक्लध्यान सवितर्क है। तथा अर्थ, व्यंजन और योगोंके परि १. नाप -आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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