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________________ ५९६ भगवती आराधना त्वावग्राहिणो रागादिभिरसहचारिता या सा मनोगुप्तिः । मनोग्रहणं ज्ञानोपलक्षणं तेन सर्वो बोधो निरस्तरागद्वेषकलङ्को मनोगुप्तिरन्यथा इन्द्रियमतौ श्रुते, अवधी, मनःपर्यये वा परिणममानस्य न-मनोगुप्तिः स्यात् । इष्यते च । अथवा मनःशब्देन मनुते य आत्मा स एव भण्यते तस्य रागादिभ्यो या निवृत्तिः रागद्वषरूपेण या अपरिणतिः सा मनोगुप्तिरित्युच्यते । अथवं ब्रूषे सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः दृष्टफलमनपेक्ष्य योगस्य वीर्यपरिणामस्य निग्रहो रागादिकार्यकरणनिरोधो मनोगुप्तिः । 'अलिणाविणियत्ती वा मोणं वा होइ वचिगुत्ती' विपरीतार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वात्परदुःखोत्पत्तिनिमित्तत्वाच्चाधर्माद्या व्यावृत्तिः सा वाग्गुप्तिः। ननु च वाचः पुद्गलत्वात् विपरीतार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वादिभ्यो व्यावृत्तिहेतुर्वाचो धर्मो न चासौ संवरणे हेतुरनात्मपरिणामत्वात् । शब्दादिवत् । एवं तहि व्यलीकात्परुषादात्मप्रशंसापरात् परनिन्दाप्रवृत्तात्परोपद्रवनिमित्ताच्च वचसो व्यावृत्तिरात्मनस्तथाभूतस्य वचसोप्रवर्तिका वाग्गुप्तिः । यां 'वाचं प्रवर्तयन् अशुभं कर्म स्वीकरोत्यात्मा तस्या वाच इह ग्रहणं वाग्गुप्तिरित्यत्र तेन वाग्विशेषस्यानुत्पादकता वाचः परिहारो वाग्गुप्तिः । मौनं वा सकलाया वाचो या परिहृतिः सा वाग्गुप्तिः । अयोग्यवचनेप्रवृत्तिः प्रेक्षापूर्वकारितया योग्यं तु वक्ति वा न वा। भाषासमितिस्तु का ग्रहण करने वाले मनका रागादि भावके साथ साहचर्य न होना मनोगुप्ति है । 'मन' शब्द ज्ञानका उपलक्षण है । अतः रागद्वषको कालिमासे रहित ज्ञानमात्र मनोगुप्ति है। यदि ऐसा न माना जाय तो जब आत्मा इन्द्रिय ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान अथवा मनःपर्ययज्ञान रूपसे परिणत हो उस समय मनोगुप्ति नहीं हो सकेगी। किन्तु उस समय भी मनोगुप्ति मानी जाती है। अथवा जो आत्मा 'मनुते' अर्थात् पदार्थों को जानता है वही मन शब्दसे कहा जाता है । उसकी जो रागादिसे निवृत्ति है अथवा रागद्वषसे परिणमन करना वह मनोगुप्ति कही जाती है। ऐसा होने पर 'सम्यक् रूपसे योगका निग्रह गुप्ति है' ऐसा कहने में भी कोई विरोध नहीं है । सम्यक् अर्थात् किसी लौकिक फलकी अपेक्षा न करके वीर्य परिणाम रूप योगका निग्रह अर्थात् रागादि कार्य करनेसे रोकना मनोगुप्ति है। __ तथा विपरीत अर्थको प्रतिपत्तिमें कारण होनेसे और दूसरोंको दुःखकी उत्पत्तिमें निमित्त होनेसे जो अधर्म मूलक वचनसे निवृत्ति है वह वचन गुप्ति है। शङ्का-वचन तो पौद्गलिक है अतः विपरीत अर्थकी प्रतिपत्तिमें हेतु आदि होनेसे व्यावृत्ति वचनका धर्म है और वह संवरमें कारण नहीं है क्योंकि वह तो पुद्गलका परिणाम है, आत्माका परिणाम नहीं है जैसे शब्द वगैरह पुद्गलके परिणाम हैं। ___ समाधान-मिथ्या, कठोर, अपनी प्रशंसा और परकी निन्दा करने वाले तथा दूसरोंमें उपद्रव कराने वाले वचनसे आत्माकी निवृत्ति, जो इस प्रकारके वचनोंकी प्रवृत्तिको रोकती है वह वचन गुप्ति है। वचन गुप्तिमें वचन शब्दसे जिस वचनको सुनकर प्रवृत्ति करता हुआ आत्मा अशुभ कर्म करता है उस वचनका ग्रहण है। अतः वचन विशेषको उत्पन्न न करना वचनका परिहार है और वही वचन गुप्ति है। अथवा समस्त प्रकारके व वनोंका परिहार रूप मौन वचनगुप्ति है। अयोग्य वचनमें अप्रवृत्ति वचनगुप्ति है। प्रेक्षापूर्वकारी होनेसे वह योग्य वचन बोले या न बोले। किन्तु योग्य वचन बोलना-उनका कर्ता होना भाषासमिति है। अतः गुप्ति और १. वाचां-अ० आ० ज०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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