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________________ २९४ भगवती आराधना लज्जं तदो विहिंसं णिव्विसंकदं चेव । पियधम्मो वि कमेणारुहंतओ तम्मओ होइ ।।३४२।। पावस्थादिसंसर्ग कतुवांच्छन्नपि 'लज्ज' लज्जां उपारोहति । 'ततः' पश्चाद्विहिंसं असंयमजुगुप्सां करोति । कथमहमेवंविधं व्रतभङ्गं करोमि दुरंतसंसारपतनहेतुमिति । पश्चाच्चारित्रमोहोदयात्परवशः पारंभं' प्रारभते । कृतप्रारम्भो यतिरारम्भपरिग्रहादिषु निविसंकदं चेव निर्विशङ्कतामुपैति । 'पियधम्मोवि' धर्मप्रियोऽपि । 'कमेणारुहंतगो' क्रमेण प्रतिपद्यमानो लज्जादिकं । 'तम्मओं होदि' पावस्थादिरूपो भवति ॥३४२।। यद्यपि बाक्कायाभ्यां न प्रयतते तथापि मानसी पावस्थादितां प्रतिपद्यत इत्याचष्टे संविग्गस्सवि संसग्गीए पीदी तदो य वीसंभो । सदि वीसंभे य रदी होइ रदीए वि तम्मयदा ॥३४३॥ 'संविग्गस्स वि' संसारभीरोरपि यतेः । 'संसग्गीए' पार्श्वस्थादिसंसर्गेण । 'पोदी होदि' प्रीतिर्भवति । 'तदो य' प्रीतेः सकाशात । 'वीसंभो होदि' विस्रम्भो भवति । 'सदि वीसंभे य रदी' विस्रम्भे सति रतिर्भवति । पार्श्वस्थादिषु 'रदीए वि तम्मयदा' रत्या च तन्मयता ।।३४३॥ संसर्गवशाद्गुणदोषो भवतोऽचेतनेष्वपीति दृष्टान्तेन बोधयति जइ भाविज्जइ गंधेण मट्टिया सुरभिणा व इदरेण । किह जोएण ण होज्जो परगुणपरिभाविओ पुरिसो ॥३४४॥ 'जदि' यदि । 'भाविज्जई' भाव्यते वास्यते । 'गंधेण' गन्धेन, 'मट्टिया' मृत्तिका । 'सुरहिणा व इयरेण' सुरभिणा च इतरेण वा । 'कह जोएण ण होज्जो' कथं संबन्धेन न भवेत् । 'परगुणपरिभावओ पुरिसो' परेपां पार्श्वस्थादीनां गुणः परिभावितः पुरुषः ।।३४४॥ परगुणग्रहणायाह पार्श्वस्थ आदिके संसर्गसे कैसे पार्श्वस्थ आदिरूप हो जाता है यह बतलाते हैं गा०-पार्श्वस्थ आदिका संसर्ग करनेकी इच्छा रखते हुए भी लज्जा करता है। पश्चात् असंयमके प्रति ग्लानि करता है कि मैं कैसे इस प्रकार व्रत भंग करूँ. यह तो दन्त संसारमें गिराने वाला है। पश्चात चारित्र मोहके उदयसे परवश होकर असंयमका प्रारम्भ करता है। असंयमका प्रारम्भ करके यति आरम्भ परिग्रह आदिमें निःशंक होकर प्रवृत्ति करता है। इस प्रकार धर्मका प्रेमी भी मुनि क्रमसे लज्जा आदि करते हुए पाश्र्वस्थ आदि रूप हो जाता है ॥३४२।। यद्यपि उनको संगतिसे वचन और कायसे तो उनके आचारमें प्रवृत्ति नहीं करता तथापि मनसे पाश्र्वस्थ आदि रूप हो जाता है यह कहते हैं गा०-संसारसे भयभीत भी मुनि पाश्र्वस्थ आदिके संसर्गसे उनसे प्रीति करने लगता है। प्रीति करनेसे उनके प्रति विश्वासी हो जाता है। उनका विश्वास करनेसे उनका अनुरागी हो जाता है और उनमें अनुराग करनेसे पार्श्वस्थादिमय हो जाता है ।।३४३॥ ___संसर्गसे अचेतन वस्तुओंमें भी गुण और दोष उत्पन्न हो जाते हैं, यह दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं___ गा०-यदि सुगन्ध अथवा दुर्गन्धके संसर्गसे मिट्टी भी सुगन्धित अथवा दुर्गन्धयुक्त हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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