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________________ विजयोदय टीका खेलपडिदमप्पाणं ण तरदि जह मच्छिया विमोचेदु ं । अज्जाणुचरो ण तरदि तह अप्पाणं विमोचेदु ||३३८ || 'खेल पडिदमप्पाणं' इलेष्मपरीतमात्मानं । 'जह ण तरह मच्छिया विमोचेदुं' यथा न तरति मक्षिका विमोचयितुम् । 'तह अज्जानुचरो ण तरइ अप्पाणं विमोचेदुं' तथा आर्यांनुचरो न शक्नोति आत्मानं विमोचयितुम् ।। ३३८ ।। साधुस्स णत्थि लोए अज्जासरिसी खु बंधणे उत्रमा । चम्मेण सह अतो ण य सरिसो जोणिकसिलेसो ||३३९ || 'साधुस्स णत्थि लोए अज्जासरिसी खु बंधणे उवमा' साधोर्नास्ति लोके आर्यासदृशी बन्धने उपमा | 'चम्मेण सह अवॅतो' चर्मणा सह अपगच्छन् । 'ण य सरिसो जोणिगसिलेसो' नैव सदृशः चर्मकारश्लेषः । न केवलं आयजनो दूरत एव परिहार्यः अपि तु अन्यदपि वस्तु ||३३९।। अण्णं पि ता वत्थं जं जं साधुस्स बंधणं कुणदि । तं तं परिहरह तदो होहदि दढसंजदा तुज्झ ॥ ३४० ॥ 'अण्णं पि ता वत्थु " अन्यदपि तथाभूतं वस्तु । 'जं जं साधुस्स बंधणं कुणई' यद्यत्साधोर्वन्धनं करोति अस्वतन्त्रतां करोति । 'तं तं परिहरहं तत्तत्परिहारे उद्योगं कुरुत । 'ततः ' वस्तुत्यागात् । 'होहदि दढसंपदा तुज्झ' भवतां दृढ़संयतता गुणो भवत्येवमिति यावत् । बाह्यवस्तुनिमित्तो ह्यसंयमस्तत्त्यागे त्यक्तो भवति ॥ ३४० ॥ २९३ पासत्थादीपणयं णिच्चं वज्जेह सव्वधा तुम्हे | हंदि हु मेलणदोसेण होइ पुरिसस्स तम्मयदा || ३४१ || 'पासत्यादीपणयं' पार्श्वस्थादिपञ्चकं पार्श्वस्थः, अवसन्नः, संसक्तः, कुशीलो, मृगचरित्रः इति पञ्च । तान् दूरतो निराकुरुत । अपरित्यागदोष माह- 'मेलणदोसेण तम्मयदा होइ' संसर्गदोषेण पार्श्वस्थादि मयता ||३४१ ॥ तन्मयता प्रतिपत्तिक्रमाख्यानायाता. गाथा - गा० - जैसे मनुष्य के कफमें फँसी हुई मक्खी उससे अपनेको छुड़ाने में असमर्थ होती है | वैसे ही आर्याका अनुगामी साधु उससे अपनेको छुड़ानेमें असमर्थ होता है ||३३८ || गा० - साधुका आर्याके साथ सहवास ऐसा बन्धन है जिसकी कोई उपमा नहीं है । चर्मके साथ ही उतरने वाला वज्रलेप भी उसके समान नहीं है ||३३९॥ Jain Education International गा० - साधुको केवल आर्याजनोंके संसर्गसे ही दूर नहीं रहना चाहिए किन्तु अन्य भी जो-जो वस्तु साधुको परतन्त्र करती है उस उस वस्तुको त्यागने में तत्पर रहो । उसके त्यागसे तुम्हारा संयम दृढ़ होगा । बाह्य वस्तुके निमित्तसे होने वाला असंयम उस वस्तुके त्यागसे त्यागा जाता है ॥ ३४० ॥ गा०--- पाश्वस्थ, अवसन्न, संसक्त, कुशील और मृगचरित्र इन पाँच प्रकारके कुमुनियोंसे तुम सदा दूर रहो । उनसे मेल रखनेसे पुरुष उनके समान पार्श्वस्थ आदि रूप हो जाता है || ३४१ || For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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