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________________ ८७२ भगवती आराधना निरुद्धमेवंभूतस्य भवतीत्याचष्टे तस्स णिरुद्धं भणिदं रोगादंकेहिं जो समभिभूदो । जंघाबलपरिहीणो परगणगमणम्मि ण समत्थो ॥२००७।। 'तस्स णिरुद्ध भाणदं' तस्य निरुद्धमुक्तं रोगेण आतङ्केन वा यस्समभिभूतः जङ्घाबलपरिहीनो वा परगणगमनासमर्थो यः ॥२००७॥ जावय बलविरियं से सो विहरदि ताव णिप्पडीयारो । पच्छा विहरदि पडिजग्गिज्जंतो तेण सगणेण ।।२००८॥ 'जावय बलविरियं' यावद्वलवीयं चास्ति । 'से' तस्य । 'सो विहरात' स तावद्गणे प्रवर्तते निष्प्रतीकारः यदा शक्तिस्तीव्रन्यूना तदा पश्चाद्विहरति तेन स्वगणेन क्रियमाणोपकारः ।।२००८।। इय सण्णिरुद्धमरणं भणियं अणिहारिमं अवीचारं । सो चेव जधाजोग्गं पुव्वुत्तविधी हवदि तस्स ॥२००९।। __ 'इय सण्णिरुद्धमरणं भणिदं' एवं सन्निरुद्धमरणं भणितं, जनाबलपरिहोनतया व्याध्यभिभवेन वा स्वस्मिन्गणे निरुद्धो यस्तस्य मरणं निरुद्धमरणं । 'अणिहारिम' सविचारभक्तप्रत्याख्यानोक्तपरित्यागाभावात्, परित्यागहीनं अनियतविहारादिविधिविचारणाभावादवीचारं। आत्मीय एव गणे आचार्यस्य समीपे प्रव्रज्यातीचारं उक्त्वा निन्दागर्हापरः कृतप्रतिक्रमः कृतप्रायश्चित्तो यावद्वीर्यमस्ति तावन्निष्प्रतीकारो विहरति, यदा' हीनसर्वचेष्टस्तदा परैरनुगृह्यमाणो विहरति ॥२००९॥ निरुद्ध किसके होता है, यह कहते हैं गा०—जो रोगसे ग्रस्त है, पैरोंमें चलनेकी शक्ति न होनेसे दूसरे संघमें जाने में असमर्थ है उसके निरुद्ध नामक अविचार प्रत्याख्यान होता है ॥२००७॥ गा०-जबतक उसमें शक्ति रहती है तबतक वह अपने संघमें रहते हुए किसीसे परिचर्या नहीं कराता। पीछे शक्तिहीन होनेपर अपने संघके द्वारा परिचर्या कराता हुआ विहरता है ॥२००८॥ __ गा०-टी०-पैरोंमें चलनेकी शक्ति न होनेसे तथा रोगसे ग्रस्त होनेके कारण जो अपने ही संघमें निरुद्ध है-रुका है उसके मरणको निरुद्धमरण कहते हैं। इस प्रकार निरुद्धमरणका स्वरूप कहा है। सविचार भक्तप्रत्याख्यानमें जिस प्रकार संघ आदिका त्याग किया जाता है वह इसमें संभव न होनेसे यह मरण परित्यागसे रहित है। और इसमें अनियत विहार आदि विधिका विचार न होनेसे यह अवीचार है। अर्थात् अपने ही संघमें आचार्यके समीपमें दीक्षा लेकर उनसे अपने दोष कहकर अपनी निन्दा और गर्दा करता है, प्रतिक्रमण करता है, प्रायश्चित्त लेता है। और जब तक शक्ति रहती है तब तक दूसरेकी सहायताके विना अपनी आराधना करता है। जब शक्ति अत्यन्त हीन हो जाती है तब दूसरोंसे सहायता लेकर अपनी आराधनाओंका पालन करता है ।।२००९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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