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________________ विजयोदया टीका ८७१ 'गिरिणदियादिपदेसा' गिरिनद्यादिप्रदेशा यदि तपोधनैरुषितानि तीर्थानि तीर्थ स्वयं कथं न भवेत् क्षपकस्तपोगुणराशिः ॥२००१॥ पुवरिसीणं पडिमाओ वंदमाणस्स होइ जदि पुण्णं । खवयस्स बंदओ किह पुण्णं विउलं ण पाविज्ज ॥२००२॥ 'पुव्वरिसीणं पडिमाउ' पूर्वेषां ऋषीणां प्रतिमा वंदमानस्य यदि पुण्यं भवति क्षपके वन्दनोद्यतः कथं विपुलं पुण्यं न प्राप्नुयात् ।।२००२॥ जो ओलग्गदि आराधयं सदा तिव्वभत्तिसंजुत्तो। संपज्जदि णिव्विग्धा तस्स वि आराहणा सयला ||२००३।। 'जो ओलग्गदि आराधयं' यस्सेवते आराधकं सदा तीव्रभक्तिसंयुक्तः, संपद्यते निर्विघ्ना तस्याप्याराधना सकला ॥२००३॥ सविचारभत्तवोसरणमेवमुववण्णिदं सवित्थारं । अविचारभत्तपच्चक्खाणं एत्तो परं वच्छं ॥२००४॥ 'सविचारभत्तवोसरणं' सविचारभक्तप्रत्याख्यानमेवमुपवणितं सविस्तरं अविचारभक्तप्रत्याख्यानं अतः परं प्रवक्ष्यामि ॥२००४॥ तत्थ अविचारभत्तपइण्णा मरणम्मि होइ आगाढो । अपरक्कम्मस्स मुणिणो कालम्मि असंपुहुत्तम्मि ॥२००५।। 'तत्थ अविचारभत्तपदिण्णा' अविचारभक्तप्रत्याख्यानं सहसोपस्थिते मरणे भवति । अपराक्रमस्य यतेः सविचारभक्तप्रत्याख्यानस्य काले असति ॥२००५॥ तत्थ पढमं णिरुद्धं णिरुद्धतरयं तहा हवे विदियं । तदियं परमणिरुद्धं एवं तिविधं अवीचारं ।।२००६॥ 'तत्थ पढम णिरुद्ध' तत्र अवीचारभक्तप्रत्याख्याने प्रथमं निरुद्ध, द्वितीयं निरुद्धतरकं, तृतीयं परमनिरुद्ध एवं त्रिविधमवीचारभक्तप्रत्याख्यानं ॥२००६॥ गा०-यदि प्राचीन ऋषियोंकी प्रतिमाओंकी वन्दना करनेवालेको पुण्य होता है तो क्षपक की वन्दना करने वालोंको विपुल पुण्य क्यों नहीं प्राप्त होगा ॥२००२।। गा०-जो तीव्र भक्तिपूर्वक क्षपककी सेवा करता है उसकी भी सम्पूर्ण आराधना सफल होती है ।।२००३।। गा०--इस प्रकार विस्तारसे विचारपूर्वक किये गये भक्तप्रत्याख्यानका कथन किया। आगे अविचार भक्तप्रत्याख्यानका कथन करते हैं ।।२००४।। गा०-जब विचार पूर्वक भक्तप्रत्याख्यान करनेका समय न रहे, और सहसा मरण उपस्थित हो जाये तो कुछ करने में असमर्थ मुनि अविचार भक्त प्रत्याख्यान स्वीकार करता है ।।२००५।। गा०-अविचार भक्तप्रत्याख्यानके तीन भेद हैं-प्रथम निरुद्ध, दूसरा निरुद्धतर और तीसरा परमनिरुद्ध ||२००६|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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