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________________ विजयोदया टीका १३९ आयापायविदण्हू वृद्धिहानिक्रमज्ञः । प्रवचनाम्यासादेवं रत्नत्रयाभिवृद्धिः एवं तथा हानिरिति यो जानाति असौ । 'दंसणणाणतवसंजमें' 'श्रद्धाने, ज्ञाने, तपसि, संयमे वा। 'ठिच्चा' स्थित्वा । 'विहरदि' प्रवर्तते । 'विसुज्झमाणो' शुद्धिमुपयान् । 'जावज्जीवं' जीवितकालावधि । तु शब्दोऽन्ते नेयः । 'णिक्कंपो दु' विनिष्प्रकंपो निश्चल एवेति यावत् । निःशंकितत्वादिना दर्शनस्य वृद्धिः, शंकादिना हानिः । अर्थव्यंजनतदुभयशुद्धया स्वाध्याये चोपयोगात् ज्ञानवृद्धिः । अनुपयोगादपूर्थीिग्रहणाच्च ज्ञानहानिः । यथा चोक्तम्"पुटवगहिदं पि णाणं 'संकुडवियजुत्तजोगिस्स" इति । तपसो द्वादशविधस्य वृद्धिः संयमभावनया वीर्याविनिगूहनात् ज्ञानोपयोगात् । हानिः पुनस्तद्विपर्ययादैहिककार्यासंगाद्वा । सम्यक् पापक्रियाभ्य उपरमः संयमः । पापक्रियाश्चाशुभमनोवाक्काययोगाः तेन चारित्रं संयमः । 'पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रं' इति वचनात् । तस्य संयमस्य वृद्धिः पंचविंशतिभावनाभिर्दानि तासां भावनानां अभावेन । श्रुताद्विना ज्ञानादीनां गुणदोषं वा न वेत्ति । अनिर्मातगुणः कथं गुणानुपवंहयेत्, अविदितदोषो वा तांस्त्यजेत् । तेन शिक्षायामादरः कार्यः ॥१०५॥ जिनवचनशिक्षा तपः इत्येतदुच्यते वारसविहम्मि य तवे सम्भंतरवाहिरे कुसलदिढे । ण वि अत्थि ण वि य होहिदि सज्झायसमं तवो कम्मं ।।१०६।। निष्कम्पताका कथन करते हैं गा०-वृद्धि और हानिके क्रमको जानने वाला श्रद्धान, ज्ञान, तप और संयममें स्थित होकर शुद्धिको प्राप्त होता हुआ जीवन पर्यन्त विहार करता है वह निश्चल ही है ।। १०५ ।। .. टो०-प्रवचनके अभ्याससे जो यह जानता है कि ऐसा करनेसे रत्नत्रयकी वृद्धि होती है और ऐसा करनेसे हानि होती है वह श्रद्धान, ज्ञान, तप, और संयममें स्थित होकर शुद्धिको प्राप्त करता हुआ. जीवन पर्यन्त विहार करता हैं निष्कम्प अर्थात् निश्चल ही है। - निःशंकित आदि गुणोंसे सम्यग्दर्शनकी वृद्धि होती है और शंका आदिसे हानि होती है। अर्थशुद्धि, व्यंजनशुद्धि और उभयशुद्धिसे तथा स्वाध्यायमें उपयोग लगानेसे ज्ञानकी वृद्धि होती है। उपयोग न लगानेसे तथा नवीन अपूर्व अर्थको ग्रहण न करनेसे ज्ञानकी हानि होती है । कहा है-'पूर्वमें ग्रहण किया हुआ भी ज्ञान, जो. उसमें उपयोग नहीं लगाता. उसका घट जाता है।' संयमको भावनासे व अपनी शक्तिको न छिपाकर ज्ञानमें उपयोग लगानेसे बारह प्रकारके तपकी वृद्धि होती है। उससे विपरीत करनेसे और लौकिक कार्यों में फंसे रहनेसे तपकी हानि होती है। पाप क्रियाओंसे सम्यक रीतिसे विरत होनेको संयम कहते हैं। अशुभ मनोयोग, अशुभ वचन योग और अशुभकाय योग पापक्रिया है। अतः चारित्र संयम है। कहा भी है-'पाप क्रियाओंसे निवृत्ति चारित्र है।' उस संयमको वृद्धि पच्चीस भावनाओंसे होती है और उन भावनाओंके अभावसे संयमकी हानि होती है। शास्त्राभ्यासके बिना ज्ञान आदिके गुण अथवा दोषको नहीं जानता। जो गुणोंको नहीं जानता वह कैसे गुणोंको बता सकता है। और जो दोषोंको नहीं. जानता वह कैसे उन्हें छोड़ सकता है ? अतः शिक्षामें आदर करना चाहिये ॥ १०५ ।। .... जिनवचनकी शिक्षा तप है, यह कहते हैं१. संकुडइविजु-मु० । २. अज्ञात-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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