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________________ १३८ भगवती आराधना 'जह जह' यथा यथा । 'सुदं' श्रुतं 'ओग्गाहदि' अवगाहते शब्दश्रुताभिधेयमधिगच्छतीति यावत् । 'अदिसयरसपसरं अतिशयरसप्रसरं' समयांतरेषु अनुपलब्धोऽर्थोऽतिशयितो रसः । शब्दस्य हि रसोऽर्थः तस्य सारत्वात आम्रफलादिरस इव । प्रसरशब्देन प्राचुर्यमतिशयितार्थस्य सूचयति । ततोऽयमर्थोऽस्य-अतिशय़ाभिधेयबहलं श्रुतमिति । ननु प्रवादिनोऽपरेऽपि स्वसमयमेव प्रशंसन्ति । प्रत्यक्षेणानुमानेन च विरुद्धमर्थस्वरूपं केवलं नित्यत्वमनित्यतां वा निरूपयतामागमानां नातिशयार्थप्रसरता। प्रमाणांतरसंवाद्यागमार्थोऽतिशयितो भवति नापरः । 'असुदपुव्वं तु' अश्रुतपूर्वमेव । ननु भव्यानामभव्यानां च कर्णगोचरतामायात्येव श्रुतं किमुच्यतेऽश्रुतपूर्वमिति ? अथ श्रुताभिधेयापरिज्ञानाच्छब्दमानं श्रुतमप्यश्रुतं इति गृह्यते तदप्ययुक्तं, अर्थोपयोगस्यापि असकृत् ज्ञातत्वात् । अयमभिप्रायः श्रद्धानसहचारिबोधाभावाच्छ्रुतमप्यश्रुतमिति । 'तह तह पल्हादिज्जई' तथा तथा .प्रल्हादमुपैति । 'नवनवसंवेगसड्ढाए' प्रत्यग्रतरधर्मश्रद्धया । ननु च संसाराद्भीरता संवेगः ततोऽयमर्थः स्यादसंबंधः न दोषः । संसारभीरुताहेतुको धर्मपरिणामः । आयुधनिपातभीरताहेतुककवचग्रहणवत् । तेन संवेगशब्दः कार्ये धर्मे वर्तते ॥१०४॥ निष्कंपताख्यानायाह आयापायविदण्हू दंसणणाणतवसंजमे ठिच्चा । विहरदि विसुज्झमाणो जावज्जीवं दु णिक्कंपो ॥१०५।। टी०-जैसे-जैसे श्रुतका अवगाहन करता है अर्थात् शब्द रूप श्रुतके अर्थको जानता है । वह श्रुत 'अतिशयरस प्रसर' होना चाहिये । अन्य धर्मोमें जो अर्थ नहीं पाया जाता उसे 'अतिशयरस' कहा है । क्योंकि शब्दका रस उसका अर्थ है वही उसका सार है। जैसे आम्रफलादिका रस । प्रसर शब्दसे अतिशयित अर्थकी बहुलता सूचित होती है। अतः 'अतिशयितरस प्रसर' का अर्थ है-अतिशय अभिधेयसे भरा हुआ श्रुत । शङ्का-अन्य मतावलम्बी भी अपने सिद्धान्तकी प्रशंसा करते हैं ? समाधान-प्रत्यक्ष और अनुमानसे विरुद्ध अर्थके स्वरूप केवल नित्यता या केवल अनित्यता का कथन करने वाले आगम अतिशय अर्थबहुल नहीं हैं। जिस आगमका अर्थ अन्य प्रमाणोंसे प्रमाणित होता है वही आगमार्थ अतिशयित होता है, अन्य नहीं। तथा वह अश्रुतपूर्व जो पहले नहीं सुना, होना चाहिये। .. शङ्का-भव्य और अभव्य जीवोंके कानोंमें श्रुत सुनने में आता ही है तब आप अश्रुत पूर्व कैसे कहते हैं ? यदि श्रुतके अर्थका ज्ञान न होनेसे शब्दमात्र श्रुतको अश्रुत कहते हैं तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि अर्थके उपयोगका भी अनेक बार ज्ञान हो जाता हैं ? समाधान-अभिप्राय यह है कि श्रद्धान पूर्वक ज्ञान न होनेसे श्रुत भी अश्रुत होता है । - तो जैसे श्रुतका अवगाहन करता है वेसे वैसे नई नई धर्मश्रद्धासे युक्त होता है । - शङ्का-संसारसे भीरुताको संवेग कहते हैं । तब आपका अर्थ धर्म ठीक नहीं हैं । समाधान–इसमें कोई दोष नहीं है। संसारसे भीरुता धर्म परिणामका कारण है। जैसे शस्त्रके आघातके भयसे कवच ग्रहण करते हैं इससे संवेग शब्द संवेगका कार्य जो धर्म है उसको कहता है ।। १०४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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