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________________ ७६० भगवती आराधना . वस्तुयाथात्म्यज्ञानमेव नास्तीति ध्यानाभावः । स तु स्वाध्यायो भवति ज्ञानमविचलं ध्यानसंज्ञितमित्यालम्बनता स्वाध्यायस्य। 'तेण' तेन धर्मेण ध्यानेनाविरुद्धा 'सव्वाणुपेहाओ' सर्वानुप्रेक्षाः एकदैकत्राश्रये वृत्तरविरोधः। अनित्यतादिवस्तुस्वभावानुप्रेक्षणमनुप्रेक्षासावालम्बनं ध्यानमिति । एतेनानुप्रेक्षाया ध्यानेऽन्तःपातित्वमाचक्षाणेनानुप्रक्षोपन्यासे बीजाधानं कृतम् ।।१७०५॥ पूर्वोक्तान् धर्मस्य चतुरो भेदान् व्याचष्टे चतसृभिर्गाथाभिः । तत्राज्ञाविचयं निरूपयति पंचेव अत्थिकाया छज्जीवणिकाए दव्वमण्णे य । आणागेज्झे भावे आणाविचएण विचिणादि ॥१७०६॥ 'पंचेव अत्यिकाया' पञ्चास्तिकाया जीवाः पुद्गलधर्मास्तिकाया धर्मास्तिकाया अधर्मास्तिकाया आकाशमिति । तान 'छज्जीवणिकायों' षड्जीवनिकायान' 'दन्वं' कालाख्यं द्रव्यं 'अण्णे य' अन्यांश्च कर्मबन्धमोक्षादीन । 'आणागेज्झे भावे' सर्वज्ञाज्ञयागम्यान्भावान् । 'आणाविचयेण' आज्ञाविचयाख्यन धर्मध्यानेन 'विचिणादि' विचारयति । सर्वविद्भिरपास्तरागद्वेषैः परमकारुणिकैः यथामी निरूपितास्ते तथैवेति चिन्ताप्रवन्ध आज्ञाविचय इति यावत । 'आणापायविवागविचये' इत्यस्मिन्पाठे अपायविचयो नाम धर्मध्यानमिति गाथापूर्वार्धन व्याचष्टे ॥१७०६।। कल्लाणपावगाणउपाये विचिणादि जिणमदमुवेच्च । विचिणादि वा अवाए जीवाण सुमे य असुभे य ॥१७०७॥ 'कल्लाणपावगाण उपाय' तीर्थंकरपददायकानां दर्शनविशुद्ध्यादीनामुपायान् निःशङ्कादीन् विचिनोति टी०-वाचना, प्रश्न करना, पाठ करना, अर्थका चिन्तन करना ये सब स्वाध्यायके भेद हैं। यदि वाचना आदि स्वाध्याय न किया जाये तो उसके अभावमें वस्तुके यथार्थस्वरूपका ज्ञान ही न होनेसे ध्यानका अभाव प्राप्त होता है। वह स्वाध्याय ज्ञान रूप है और निश्चल ज्ञानका नाम ध्यान है। अतः स्वाध्याय ध्यानका आलम्बन है। तथा सब अनुप्रेक्षाएँ एक समयमें एक आश्रयमें रह सकती हैं अतः वे भी धर्मध्यानके अनुकल हैं। वस्तके अनित्य आदि स्वभावका चिन्तन अनुप्रेक्षा है अतः वे भी ध्यानकी आलम्बन हैं। इस प्रकार ग्रन्थकारने अनुप्रेक्षाओंको ध्यानमें अन्तर्भूत कहकर आगे अनुप्रेक्षाओंके कथन करनेका बीज बो दिया है ॥१७०५॥ ___आगे चार गाथाओंसे धर्मध्यानके चार भेदोंको कहते हैं। सबसे प्रथम आज्ञाविचयको कहते हैं गा०-टी०-पाँच अस्तिकाय हैं-जीव, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश। इन अस्तिकायोंको, तथा पाँच प्रकारके स्थावरकाय और त्रसकाय इन छह जीवनिकायोंको, कालद्रव्यको तथा अन्य कर्मबन्ध मोक्ष आदिको जो सर्वज्ञकी आज्ञासे ही गम्य है, आज्ञाविचय नामक धर्मध्यानके द्वारा विचार करता है। परम दयालु और राग-द्वेषसे रहित सर्वज्ञ देवने जिस रूपमें इन्हें कहा है वे उसी रूप हैं। इस प्रकारके चिन्तनको आज्ञाविचय धर्मध्यान कहते हैं ।।१७०६॥ गा०-तीर्थङ्कर पदको देनेवाले दर्शनविशुद्धि आदिके उपाय निःशंकित आदिका विचार १. यान् कालदव्वं कालाख्यं -अ० मु० । २. यथानीति -आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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