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________________ विजयोदया टीका ७५९ धर्मध्यानस्य लक्षणं निर्दिशति धम्मस्स लक्खणं से अज्जवलहुगत्तमद्दवदेसा । उवदेसणा य सुत्ते णिसग्गजाओ रुचीओ दे ॥१७०४।। 'धम्मस्स लक्खणं से' से तस्य । 'धम्मस्स' धर्मस्य ध्यानस्य । 'लक्खणं' लक्षणं । लक्ष्यते धर्म्य ध्यानं येन तल्लक्षणं । 'अज्जवलहुगत्तमद्दवमुववेसा' आकृष्टान्तद्वयतन्तुवत् कुटिलताविरह आर्जवं । 'लघुगत्तं' लघुता निस्संगता जात्याद्यष्टविधाभिमानाभावो मार्दवं । उपेत्य जिनमतं देशनं कथनमुपदेशः हितोपदेश इति यावत । आर्जवादिभिः कार्यलक्ष्यते धर्मध्यानमिति आर्जवादिकः लक्षणं । न ह्यातरौद्रे आर्जवादिकं संपादयतः । यदार्जवादिकं परिणाममात्मनः करोति तद्धर्म्यध्यानमिति लक्षणभावः । अथवा आर्जवादिपरिणामसद्भाव एव धबध्यानं प्रवर्तते नासत्यार्जवादी। नहि मानमायालोभकषायाविष्टो धर्म प्रवर्तते, तेनार्जवादिकं कारणं तेन लक्ष्यते धय॑मिति लक्षणतार्जवादीनाम् ॥१७०४॥ . आलंबणं च वायण पुच्छण परिवट्टणाणुपेहाओ । धम्मस्स तेण अविरुद्धाओ सव्वाणुपेहाओ ॥१७०५॥ आलम्बनप्रतिपादनायोत्तरगाथा । 'आलम्बणं च'आश्रयश्च । कस्स ? 'धम्मस्स' धर्मध्यानस्य, 'वायण पुच्छण परिवठ्ठणाणुपेहाओ' वाचना प्रश्नः, परिवर्तनमनप्रेक्षेति स्वाध्यायविकल्पाः । वाचनादिस्वाध्यायाभावे का आकार झल्लरी गोल झांझके समान और ऊर्ध्वलोकका आकार मृदंगके समान है। इस प्रकार तीनों लोकोंके संस्थानका विचय अर्थात् विचार जिसमें हो वह संस्थानविचय धर्मध्यान है।।१७०३।। धर्मध्यानका लक्षण कहते हैं गा०-आर्जव, लघुता, मार्दव, उपदेश और जिनागममें स्वाभाविक रुचि ये धर्मध्यानके लक्षण हैं ॥१७०४॥ टी०-जिससे धर्मध्यानकी पहचान होती है वह उसका लक्षण है। एक धागेको दोनों ओरसे ताननेपर जैसे उसमें कुटिलता नहीं रहती, सरलता रहती है उसी प्रकारकी सरलताको आर्जव कहते हैं। लघुता अनासक्ति और निर्लोभताको कहते हैं । जाति आदि आठ बातोंका गर्व न करना मार्दव है। 'उप' अर्थात् किसीके पास जाकर 'देश' अर्थात् जिनमतका कथन करना उपदेश है अर्थात् हितोपदेश है । आर्जव आदि कार्यो से धर्मध्यान पहचाना जाता है इसलिये आर्जव आदि धर्मध्यानके लक्षण हैं। आर्त और रौद्रध्यान वालोंको आर्जव आदि नहीं होते । जो आत्माके आर्जव आदिरूप परिणाम करता है वह धर्मध्यान है । इस प्रकार आर्जवादि धर्मध्यानके लक्षण हैं। अथवा आर्जव आदि परिणामके होनेपर ही धर्मध्यान होता है, आर्जव आदिके अभावमें नहीं होता । जो मान, माया और लोभसे घिरा रहता है वह धर्ममें प्रवृत्ति नहीं करता। अतः आर्जवादिक धर्मध्यानके कारण हैं उनसे धर्मध्यानकी पहचान होती है। इसीलिये आर्जव आदि धर्मध्यानके लक्षण हैं ||१७०४|| आगेकी गाथासे धर्मध्यानके आलम्बन कहते हैं गा०-वाचना, पृच्छना, परिवर्तन और अनुप्रेक्षा ये धर्मध्यानके आलम्बन हैं। तथा सब अनुप्रेक्षा धमध्यानके अविरुद्ध हैं ॥१७०५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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