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________________ ४६२ भगवती आराधनां इब नरा अपि । 'असन्भूदं सम्भूदंति भण्णंति मोहेण' अतत्त्वमपि तत्त्वमित्यवगच्छन्ति दर्शनमोहेन हेतुना ।।७२४॥ परिहर तं मिच्छत्तं सम्मत्ताराहणाए दढचित्तो । होदि णमोक्कारम्मि य णाणे वदभावणासु धिया ।।७२५॥ मिथ्यात्वजन्यमोहमाहात्म्यप्रख्यापनायाह मिच्छत्तमोहणादो धत्तुरयमोहणं वरं होदि । वड्ढेदि जम्ममरणं दसणमोहो दु ण दु इदरं ।।७२६।। 'मिच्छत्तमोहणादो' मिथ्यात्वजन्यान्मोहात् । 'धत्तूरयमोहणं' उन्मत्तरससेवाजनितमोहनं । 'वरं होदि' शोभनं भवति । कथं ? 'वडढेदि' वर्धयति । 'जम्ममरणं' जन्ममरणं च विचित्रासू योनिषु । कि ? 'दसणमोहो' दर्शनमोहजन्यः कलङ्कः । 'ण दु इदरं जम्ममरणं वड्ढेदि' नैव धत्तूरकमोहनं जन्ममरणपरम्परां आनयति कतिपयदिनभाविमोहसम्पादनोद्यता-(-त) अनन्तकालतिवपरीत्यजननक्षममोहनं अतिशयेन निकृष्टमिति भावः । ततो जन्मरणप्रवाहभीरुणा भवता त्याज्यं मिथ्यात्वं इति ।।७२६।। ननु प्रागेव परित्यक्तं मिथ्यात्वं तत्कथं इदानीं तत्त्यागोपदेश इत्यत्राशङ्कायामिदमुच्यते जीवो अणादिकालं पवत्तमिच्छत्तभाविदो संतो। ण रमिज्ज हु सम्मत्ते एत्थ पयत्तं खु कादव्वं ।।७२७।। 'जीवो अणादिकालं पवत्तमिच्छत्तभाविदो सन्तो' जीवोऽनादिकालप्रवृत्तमिथ्यात्वभावितः सन् । 'ण रमिज्ज खु' नैव रमेत । 'सम्मत सम्यक्त्वे, ‘एत्थ' अत्र सम्यक्त्वे । 'पयत्तं' प्रयत्नः ‘कादव्वं खु' कर्तव्य एव । तृष्णा कहते हैं। जैसे प्याससे पीड़ित मृग उसे पानी जानते हैं वैसे ही मनुष्य भी दर्शनमोहके कारण अतत्त्वको भी तत्त्व जानता है ।।७२४॥ __गा०-अतः हे क्षपक, सम्यक्त्वकी आराधनाके द्वारा उस मिथ्यात्वको दूर कर । ऐसा करनेसे पंचपमेष्ठोके नमस्कारमें ज्ञान और व्रतोंकी भावनामें चित्त दृढ़ होता है ।।७२५।। मिथ्यात्वसे उत्पन्न हुए मोहका माहात्म्य कहते हैं गा०-टी०-मिथ्यात्वके उदयसे उत्पन्न हुए मोहसे धतूरेके सेवनसे उत्पन्न हुआ मोह (मूर्छा) उत्तम है; क्योंकि दर्शन मोहसे उत्पन्न हुआ मोह नाना योनियोंमें जन्ममरणको बढ़ाता है किन्तु धतूरेके सेवनसे उत्पन्न हुआ मोह जन्ममरणकी परम्पराको नहीं बढ़ाता। अतः कुछ दिनोंके लिए मोह उत्पन्न करने वाले धतूरके मदसे अनन्त कालके लिए विपरीत वुद्धि उत्पन्न करने में समर्थ मिथ्यात्वका मोह अत्यन्त बुरा है। अतः जन्ममरणकी परम्परासे भीत आपको मिथ्यात्वका त्याग करना चाहिए ।।७२६।। __ यहाँ यह शंका होती है कि मिथ्यात्वका त्याग तो पहले ही कर दिया यहाँ उसके त्यागका उपदेश क्यों ? इसका उत्तर देते हैं. गा०-यह जीव अनादि कालसे चले आते हुए मिथ्यात्वसे भावित होता आया है इससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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