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________________ विजयोदया टीका 'जाति के भोगा' यावन्तः केचन भोगाः। 'ते सव्वे पत्ता अणंतखुत्ता ते' सर्व प्राप्ता अनन्तवारं तव । 'को णाम तत्थ भोगेसु' को नाम तेषु भोगेषु विस्मयः लब्धपूज्झितेषु ॥१२५५।। भोगतृष्णा निरन्तरं दहति भवन्तं, सेव्यमानाः पुनर्भोगास्तामेव तृष्णां वर्द्धयन्ति ततो भोगेच्छां शिथिलतां नेयेति वदति-- जह जह भुजइ भोगे तह तह भोगेसु वड्ढदे तण्हा । अग्गीव इंधणाई तण्हं दीविति से भोगा ॥१२५६॥ 'जह जह भुजदि भोगे' यथा यथा भोगान्भुङ्क्ते । 'तह तह' तथा तथा । 'भोगेसु वड्ढदे तण्हा' भोगेष वर्धते तृष्णा । 'अग्गि व' अग्नि वा । यथा 'इंधणाई' इन्धनानि । 'दीविति' दीपयन्ति । 'तहा' तथा । 'तण्ह' तृष्णां दीपयन्ति । 'से' तस्य भोक्तुर्भोगाः । तथा चोक्तंतृष्णाचितः परिवहन्ति न शान्तिरासां । इष्टेन्द्रियाविभवः परिवृद्धिरेव ॥ [वृहत्स्वयंभू०] ॥१२५६॥ जीवस्स पत्थि तित्ती चिरं पि भोएहिं भुजमाणेहिं । तित्तीए विणा चित्तं उन्वूरं उवुदं होइ ॥१२५७॥ 'जीवस्स' जीवस्य । नास्ति तृप्तिश्चिरकालमपि भोगाननुभवतः पल्योपमत्रयं कालं भोगभूमीषु त्रयस्त्रिशत्सागरोपमकालं अमरेषु । तप्त्या च विना चित्तं । 'उग्वरं उम्बुदं' उत्पूर उच्छ्रतं भवतीति सूत्रार्थः ।।१२५७॥ जह इधणेहि अग्गी जह व समुद्दो णदीसहस्सेहिं । तह जीवा ण हु सक्का तिप्पेदु कामभोगेहिं ।।१२५८॥ 'जह इंधणेहि' यथेन्धनरग्निर्न तृप्यति । यथा वा समुद्रो नदीसहस्रः । तथा जीवो न शक्यो भोगैस्तपयितुं ॥१२५८॥ उचित था, किन्तु उन सबको तुमने अनन्त बार भोगा है। उन भोगकर छोड़े गये विषयोंमें हर्ष मानना उचित नहीं है। इस प्रकार आचार्य विषयोंके प्रति अनादर भाव उत्पन्न करते हैं-जितने संसारके भोग हैं वे सब तुमने अनन्त बार प्राप्त किये हैं उन प्राप्त करके छोड़े गये विषयोंमें आश्चर्य कैसा ? ||१२५५॥ आगे कहते हैं कि तुम्हें भोगोंकी तृष्णा निरन्तर जलाती है। भोगोंका सेवन उसी तृष्णाको बढ़ाता है अतः भोगोंकी इच्छाको कम करो गा०-जैसे जैसे भोगोंको भोगते हो वैसे वैसे भोगोंको तृष्णा बढ़ती है। जैसे इंधनसे आग प्रज्वलित होती है वैसे ही भोगोंसे तृष्णा बढ़ती है । कहा भी है-यह तृष्णारूपी ज्वाला सदा जलाती है, इष्ट इन्द्रियोंके विषयोंसे इनकी तृप्ति नहीं होती, बल्कि बढ़ती है ॥१२५६।। गा-तीन पल्य तक भोगभूमिमें, तेतीस सागर तक देवोंमें इस तरह चिरकाल तक भोगों को भोगते हुए भी तृप्ति नहीं होती और तृप्तिके विना चित्त अत्यन्त उत्कण्ठित रहता है ।।१२५७॥ ___गा०-जैसे ईधनसे आगकी तृप्ति नहीं होती। अथवा जैसे हजारों नदियोंसे समुद्रकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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