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विजयोदया टीका
'आएसं' प्राचूर्णकं । एज्जंतं' आयान्तं । 'दट्ठूण' दृष्ट्वा । 'सहसा अब्भुट्ठति' शीघ्रमभ्युत्थानं कुर्वन्ति यतय: । 'आगासंगहवच्छल्लदाए' अन्भुट्ठयो समणो सुप्तत्थविसारदो उवासेज्ज' इति जिनाज्ञासंपादनार्थं आगच्छन्तं संग्रहीतुं । वत्सलतया च तस्मि 'श्चरणे य णादुज्ज' चरित्रं समाचारक्रमं तदीयं ज्ञातुं च अभ्युत्थानं कुर्वन्ति । क्वचित्पाठः " चरणे य णामेदु" इति च चर णावगमनार्थं इति तत्रा ग्राह्यम् ॥ ४१२॥
आगंतु गवच्छव्वा पडिलेहाहिं तु अण्णमण्णेहिं । अण्णोण्णचरणकरणं जाणणहेदु परिक्खंति || ४१३।।
'आगंतुगवच्छन्वा' आगन्तुको वास्तव्याश्च । 'पडिलेहाहि तु' दृष्ट्वा । 'अण्णमण्णेहिं' अन्योन्यं । 'अण्णोष्णकरणचरणं' अन्योन्यस्य चरणं करणं वा । 'परिक्खन्ति' परीक्षन्ते । किमर्थं । ' जाणण हेदु' ज्ञातु ं । समितयो गुप्तयश्चरणशब्देनोच्यन्ते करणमित्यावश्यकानि गृहीतानि । आचार्याणामुपदेशभेदात्सामाचारोऽनेकप्रकारो दुरवगमः तं ज्ञातु सहावस्थानयोग्यो न वायमिति ज्ञातु ं वा ॥४१३॥
क्व परीक्ष्यन्ते इत्यत्राह -
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आवासयठाणादिसु पडिलेहणवयणगहणणिक्खेवे ।
सज्झाए य विहारे भिक्खरगहणे परिच्छंति ॥ ४१४ ॥
'आवासगठाणादिसु' अवश्यमेव संवरनिर्जरार्थिभिः कर्तव्यानि सामायिकादीनि आवश्यकान्युच्यन्ते तेषां इस प्रकार गुरुकी खोज में आये हुए क्षपकको देखकर उस गणके वासी साधुओंकी सामाचारीका क्रम कहते हैं
गा० अतिथिको आता हुआ देखकर यतिगण शीघ्र खड़े हो जाते हैं । जिनागमकी आज्ञाका पालन करने के लिए, आने वालेको ग्रहण करनेके लिए और वात्सल्य भावके लिए तथा उसका कैसा आचारादि है यह जाननेके लिए वे उठकर खड़े होते हैं । कहीं पर 'चरणे य णामेदुं' पाठ है । उसका अर्थ होता है—‘अतिथि के चरणोंमें नमन करने के लिए खड़े होते हैं । यह यहाँ ग्रहण करने योग्य नहीं है ||४१२॥
गा० - टी० आने वाला मुनि और उस गणके वासी मुनि प्रतिलेखनाके द्वारा देखकर परस्पर में एक दूसरेके चरण और करणको जाननेके लिए परीक्षा करते हैं । यहाँ चरण शब्दसे समिति और गुप्ति कही हैं । और करण शब्दसे आवश्यकोंका ग्रहण किय। है । आचार्योंके उपदेश में भेद होनेसे साधुओंका समाचार अनेक प्रकारका है। इससे वह दुरवगम है। उसका जानना कठिन है उसको जानने के लिए वे परस्पर में परीक्षा करते हैं । अथवा यह हमारे साथ रहनेके योग्य है अथवा नहीं, यह जाननेके लिए परीक्षा करते हैं ||४१३ ||
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कैसे परीक्षा करते हैं, यह कहते हैं
गा०—आवश्यक स्थान आदिमें, प्रतिलेखन, वचन, ग्रहण, निक्षेप, स्वाध्याय, बिहार और भिक्षाग्रहण में परीक्षा करते हैं ||४१४ ॥
टो० - संवर और निर्जराके इच्छुकोंको अवश्य ही करने योग्य सामायिक आदिको आव
१. चरणे व णामेदु चरणावनमनार्थ- मूलारा० ।
२. तत्र ग्राह्यम् - मु० ।
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