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________________ भगवती आराधना स्थानं स्थितिः आवश्यकपरिणतिकालः । 'दुऊणदं जहाजादं बारसास्तव च । चदुस्स तिसुद्ध'-(मूलाचार ७४१०४) मित्यादिका क्रिया आदिशब्देन गहीता। तेष आवश्यकस्थानादिष । 'पडिलेहणवयणगहः गणिक्खेवे' प्रतिलेखने चक्षुषा उपकरणेन वा, वचने, उपकरणानां ग्रहणे निक्षेपे, च 'सज्झाए' स्वाध्याये, 'विहारे' जंघाविहारे, 'भिक्खग्गहगे' भिक्षाग्रहणे च 'परिक्खंति' परीक्षन्ते । किमयं सामायिकादीन्यावश्यकानि करोति ? कुर्वन्नपि वा यथाकालं करोति न वा? किं वा द्रव्यसामायिकादी प्रवर्तते उत भावसामायिकादौ ? द्रव्यसामायिकादिकं भवति सामायिकादिकं पठतः, कायेन चोक्ता क्रियां कुर्वतः । सावद्ययोगप्रत्याख्याने, तीर्थकृद्गुणानुस्मरणे, आचार्योपाध्यायादीनां वा गुणानुस्मृतौ, स्वातिचारनिन्दागहयोः, प्रत्याख्येयप्रत्याख्याने, शरोरममतानिरासे वा, परिणतिर्भावसामायिकादिकं । तत्र प्रवृत्तो न वेति परीक्षा । चक्षुषा पूर्वमिदं प्रतिलेखनं योग्यं न वेति कि पश्यति न वा। उपकरणेत मदना लघुना प्रमार्जनं किं करोति न करोति वा । अथवा त्वरितं प्रमार्जयति, अवपीडयति, दूरा'दस्थानात् पातयति, प्रमार्जनेन विरोधिनो जीवान्मिश्रयति । आहाराभिमुखान्, आहारग्राहिणो गृहीताण्डकान्, स्वनिवासदेशस्थान्, मूर्छामुपगतान्प्रमार्जयति न वेति परीक्षा । वचने परीक्षा-परुषं वचः, परनिन्दात्मप्रशंसाप्रवृत्तं, आरम्भपरिग्रहयोः प्रवर्तकं, मिथ्यात्वसंपादकं, मिथ्याज्ञानकारि, व्यलीकं, गृहस्थानां वचो वा वदति न वेति । यतो यदादेयं यद्वा यत्र निक्षिपति तदभयप्रमार्जनपूर्वक किं गृह्णाति निक्षिपति वा नेति परीक्षा। कालादिशुद्धि कृत्वा पठति किं वा न, अथवा इमं ग्रन्थं पठति, श्यक कहते हैं। उनका स्थान अर्थात् स्थिति यानो आवश्यक रूप परिणतिका काल । आदि शब्दसे 'दो बार नमस्कार, यथाजात, बारह आवर्त, चार बार सिरका नमन, मन वचन कायकी शुद्धि' इत्यादि क्रिया ग्रहण की हैं । चक्षु अथवा उपकरणसे प्रतिलेखना करने पर, वार्तालापमें उपकरणोंके ग्रहण और रखनेमें, स्वाध्यायमें, पैदल चलनेमें, और भिक्षा ग्रहणमें परीक्षा करते हैं कि यह सामायिक आदि करता है या नहीं ? करता है तो समय पर करता है या नहीं? अथवा द्रव्य सामायिक आदि करता है या भाव सामायिक आदि करता है। सामायिक आदि गाठ पढ़ते हए और शरीरसे उक्त क्रिया करते हए द्रव्य सामायिक आदि होते हैं। सावध योगका त्याग करनेपर, तीर्थकरके गणोंका स्मरण करनेपर, अथवा आचार्य उपाध्याय आदिके गणोंका स्मरण करनेपर, अपने अतिचारोंकी निन्दा गर्दा करनेपर, त्यागने योग्यका त्याग करनेपर, अथवा शरोरसे ममत्वको दूर करनेपर भाव सामायिक आदि होते हैं। उसमें प्रवृत्त होता है या नहीं, यह परीक्षा है। यह प्रतिलेखन योग्य है या नहीं? ऐसा आँखोंसे पहले देखता है या नहीं, कोमल हल्के उपकरणसे प्रमार्जन करता है या नहीं ? अथवा क्या जल्दीमें प्रमार्जन करता है । क्या जीवोंको पीड़ा पहुँचाता है ? क्या दूर स्थानसे उपकरणादि गिराता है ? क्या प्रमार्जनके द्वारा विरोधी जीवोंको मिलाता है ? जो जीव आहारमें लगे हैं, या आहार ग्रहण कर रहे हैं, जिन्होंने मुहमें अण्डे लिए हुए हैं, जो अपने निवास देशमें स्थित हैं, मूर्छाको प्राप्त हैं ऐसे जीवोंका प्रमार्जन-रक्षण करता है या नहीं, यह परीक्षा है । वचन परीक्षा-कठोर वचन, परकी निन्दा अपनी प्रशंसा करने वाले वचन, आरम्भ और परिग्रहमें प्रवृत्ति कराने वाले वचन, मिथ्यात्वके सम्पादक वचन, मिथ्याज्ञान कराने वाले वचन, झूठे वचन अथवा गृहस्थोंके योग्य वचन बोलता है क्या ? जहाँसे जो ग्रहण करता है अथवा जहाँ जो रखता है उन दोनोंके प्रमार्जन पूर्वक ग्रहण और निक्षेप करता है या नहीं, यह परीक्षा है । कालादिकी शुद्धि पूर्वक ग्रन्थ पढ़ता है या नहीं ? अथवा किस ग्रन्थको पढ़ता १. दूरावस्थानात्-आ० । दूरावस्थान्-मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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