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________________ भगवतो आराधना निमित्तानि निर्वय॑न्ते तान्यपि निर्वर्तनाधिकरणं । यस्मिन्सौवीरादिभाजने प्रविष्टा नियन्ते ॥८०८॥ संजोयणमुवकरणाणं च तहा पाणभोयणाणं च। दुदृणिसिट्ठा मणवचिकाया भेदा णिसग्गस्स ॥८०९।। 'संजोजणमुवकरणाणं' उपकरणानां पिच्छादीनां अन्योन्येन संयोजना। शीतस्पर्शस्य पुस्तकस्य कमण्डल्वादेर्वा आतपादितप्तेन पिच्छेन प्रमार्जनं इत्यादिकं । 'तहा' तथा । 'पाणभोजणाणं च' पानभोजनयोश्च पानं पानेन, पानं भोजनेन, भोजनं भोजनेन, भोजनं पानेनेत्येवमादिकं संयोजनं यस्य सम्मूर्छन सम्भवति सा हिंसाधिकरणत्वेनातोपात्ता न सर्वा । 'दुणिसिट्ठा मणवचिकाया' दुष्टप्रवृत्ता मनोवाक्कायप्रभेदा निसर्गशब्देनोच्यन्ते ॥८०९।। अहिंसारक्षणोपायमाचष्टे जं जीवणिकायवहेण विणा इंदियकयं सुहं पत्थि । तम्हि सुहे णिस्संगो तम्हा सो रक्खदि अहिंसा ॥१०॥ 'जं जीवणिकायवहेण' यस्माज्जीवनिकायघातं विना । 'इंदियसुह' इन्द्रियसुखं नास्ति । स्त्रीवस्त्रगन्धमाल्यादिसेवा विचित्रा जीवनिकायपीडाकारिणी आरम्भेण महतोपार्जनीयत्वात् । तस्मिन्निन्द्रियसुखे । णिसंगो यस्स पात्यहिंसां नेन्द्रियसुखार्थी । तस्मान्दिन्द्रियसुखादरं मा कृथा इत्युपदिशति सूरिः ॥८१०॥ उपकरण जो जीवोंको वाधा पहुंचाते हैं उनकी निर्वर्तना-रचना करना भी निर्वर्तनाधिकरण है। जैसे कांजी आदि रखनेके ऐसे सछिद्रपात्र बनाना जिसमें प्रविष्ट जीव मर जाते हैं। विशेषार्थ-सर्वार्थसिद्धिमें पूज्यपाद स्वामीने निर्वर्तनाधिकरणके दो भेद कहे हैं एक मूलगुणनिर्वर्तना, एक उत्तरगुण निर्वर्तना। शरीर वचन मन, उच्छ्वास निश्वासकी रचना मूलगुण निर्वर्तना है । लकड़ीके पट्टपर चित्रकर्म आदि रचना करना उत्तर गुणनिर्वर्तना है । इन क्रियाओंसे जीवोंको कष्ट पहुँचता है । चित्रकर्ममें छेदन-भेदनकी भावना उत्पन्न होती है ।।८०८।। संयोजनाधिकरण और निसर्गाधिकरणका स्वरूप कहते हैं गा०-टी०-पिच्छी आदि उपकरणोंको परस्परमें मिलाना। जैसे शीतस्पर्शवाली पुस्तक अथवा कमंडलु आदिको धूपसे तप्त पीछीसे साफ करना उपकरण संयोजना है। एक जलमें दूसरा जल मिलाना, एक भोजनमें दूसरा भोजन मिलाना अथवा भोजनमें पेय मिलाना आदि भक्तपान संयोजना है। यहाँ इतना विशेष जानना कि जिस पेय या भोजनमें सम्मूर्छन जीव होते हैं उसे ही हिंसाका अधिकरण स्वीकार किया है, सबको नहीं। दुष्टतापूर्वक मन वचन कायकी प्रवृत्तिको निसर्गाधिकरण कहते हैं ।।८०९|| अहिंसाकी रक्षाके उपाय कहते हैं गा०-टी०-यतः छहकायके जीवोंकी हिंसाके विना इन्द्रियजन्य सुख नहीं होता। विचित्र प्रकारके स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माला आदिका सेवन जीवोंको पीड़ा करनेवाला होता है क्योंकि बहुत आरम्भसे उसकी प्राप्ति होती है। अतः जो इन्द्रियजन्य सुखमें आसक्त नहीं है वही अहिंसा की रक्षा करता है। जो इन्द्रिय सुखका अभिलाषी है वह नहीं रक्षा करता। अतः आचार्य कहते हैं कि इन्द्रियसुखका आदर मत करो ॥८१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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