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________________ ८३० भगवती आराधनों मनुजताया दुर्लभत्वे कारणमाह असुहपरिणामबहुलत्तणं च लोगस्स अदिमहल्लत्तं । जोणिबहुत्तं च कुणदि सुदुल्लहं माणुसं जोणी ॥१८६२॥ 'असुहपरिणामबहुलत्तणं च' अशुभपरिणामानां मिथ्यात्वासंयमकषायप्रमादानां परिणामानां बहुत्वं मनुजयोनिदुर्लभतां करोति । मनुजरहितलोकस्यातिमहत्त्वं च तत् दुर्लभतां करोति । असंख्येया हि द्वीपसमुद्रका नारकावासाः, स्वर्गपटलानि, इतरश्च लोकाकाशमतिमहत् । योनीनां बहुत्वं चेतरासां निबन्धनं तदुर्लभतायाः ॥१८६२।। अपरामपि दुर्लभतापरम्परां दर्शयत्युत्तरगाथा "देसकुलरूवमारोग्गमाउगं बुद्धिसवणगहणाणि । लद्धे वि माणुसत्ते ण हुँति सुलभाणि जीवस्स ॥१८६३।। 'देसकुलरूवमारोग्गं' 'देशकुलरूपमारोग्यं । आयुगमायुष्कं । 'बुद्धिसवणगहणाणि' बुद्धिश्रवणग्रहणानि । लब्धेऽपि मनुष्यत्वे मनुष्यगतिनामकर्मोदयात्, जिनप्रणीतधर्मप्रगल्भमानवबहुलो देशो दुर्लभः । अन्तर्वीपानां शकयवनकिरातबर्बरपारसीकसिंहलादिदेशानां धर्मज्ञमानवरहितानामतिबहुलत्वात् । लब्धेऽपि देशे सुजनावासे मनुष्य पर्यायकी दुर्लभताका कारण कहते हैं गा०-टी०-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और प्रमादरूप अशुभ परिणामोंकी बहुतायतके कारण मनुष्य योनि दुर्लभ है । तथा मनुष्य रहित लोक अतिमहान् है इससे भी मनुष्ययोनि दुर्लभ हो क्योंकि असंख्यात द्वीप समुद्रों तक तो नरकावास है, ऊपर स्वर्गपटल । शेष लोकाकाश भी महान् है । तथा जीवोंकी योनियां बहुत हैं। इससे भी मनुष्य योनि दुर्लभ है ।।१८६२।। विशेषार्थ-लोकके मध्यमें पैतालीस लाख योजन प्रमाण क्षेत्र ही मनुष्य लोक है। अढ़ाई द्वीपकेबाहर सब तिर्यञ्च ही रहते हैं । नारकी रहते हैं। ऊपर देव रहते हैं । तथा जीवोंका योनियाँ भी बहुत हैं इसके साथ ही अशुभ परिणामोंकी भी बहुलता है । शुभ परिणाम होनेसे ही मनुष्यगतिमें अच्छा क्षेत्र, जाति, कुल आदि उपलब्ध होते हैं तभी तो मनुष्य होकर धर्मलाभ हो सकता है। मनुष्य पर्याय भी पाई किन्तु देश, कुल, जाति ठीक नहीं मिले तो मनुष्य पर्याय पाकर भी क्या लाभ हुआ । अतः धर्मसाधनके योग्य मनुष्य पर्याय दुर्लभ है ।।१८६२।। आगे और भी दुर्लभताके कारण कहते हैं . गा०-जीवके मनुष्य पर्याय प्राप्त करने पर भी देश, कुल, रूप, आरोग्य, आयु, बुद्धि, श्रवण, ग्रहण सुलभ नहीं हैं ॥१८६३॥ टी-मनुष्यगति नाम कर्मके उदयसे मनुष्यपर्याय पानेपर भी जिन भगवान्के द्वारा कहे गये धर्ममें दक्ष मनुष्योंसे भरा हुआ देश प्राप्त होना दुर्लभ है। क्योंकि धर्मके ज्ञाता मनुष्योंसे रहित अन्तर्वीप तथा शक, यवन, किरात, बर्बर, पारसीक और सिंहल आदि देश अनेक हैं । १. 'देसकुल जाइ रूवं, आरोग्गं आउगं च पुण्णं च । बुद्धिसवणगहणाणि लद्धे णरत्तेहिं दुल्लहं होई ॥' -आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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