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विजयोदया टोका
८२० यथा यथा निर्वेद उपशमो वैराग्यं दया चित्तनिग्रहश्च प्रवर्तते तथा तथा समीपतरं भवति निर्वाणं पुरुषस्य ।।१८५८॥ धर्म स्तौति
सम्मसणतुंबं दुवालसंगारयं जिणिंदाणं ।
वयणेमियं जगे जयइ धम्मचक्कं तवोधारं ॥१८५९।। 'सम्मसणतुंब' सम्यग्दर्शनतुम्बं द्वादशाङ्गारकं व्रतनेमिकं तपोधारं जिनेन्द्राणां धर्मचक्रं जगति जयति ॥१८५९॥ धम्म । बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा कथ्यते
दंसणसुदतवचरणमइयम्मि धम्मम्मि दुल्लहा बोही ।
जीवस्स कम्मसत्तस्स संसरंतस्स संसारे ॥१८६०॥ 'दसणसुदतवचरणमइयम्मि' दर्शनश्रु ततपश्चरणमये धर्मे दुर्लभा वोधिर्जीवस्य कर्मसक्तस्य संसारे संसरतः ॥१८६०॥ तस्या दुर्लभतां प्रकटयत्युत्तरप्रबन्धेन
संसारम्मि अणंते जीवाणं दुल्लह मणुस्सत्तं ।
जुगसमिलासं जोगो जह लवणजले समुद्दम्मि ।।१८६१॥ __'संसारम्मि अणते' अनन्तसंसारे जीवानां मनुष्यत्वं दुर्लभं पूर्वापरसमुद्रनिक्षिप्तयुगतत्संबंधिकाष्ठसंयोग इव ॥१८६१॥
गा०—जिनेन्द्रका धर्मचक्र जगत्में जयशील होता है। सम्यग्दर्शन उसकी नाभि है, द्वादशांग उसके अर हैं, व्रत नेमि है और तप धारा अर्थात् दूसरी नेमि है ॥१८५८॥
विशेषार्थ-जैसे गाड़ोके चक्केमें अर होते हैं, बीचमें उसकी नाभि होती है। उसी प्रकार जिनेन्द्र के धर्मचक्रकी नाभि सम्यग्दर्शन है। द्वादशांगवाणी या बारह तप उसके डण्डे हैं। और व्रत नेमि है। इनके आधारपर वह धर्मचक्र गतिशील होता है ।।१८५९॥
धर्मानुप्रेक्षाका कथन समाप्त हुआ।
अब वोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षाका कथन करते हैं
गा०-संसारमें भटकते हुए कर्मलिप्त जीवके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् तपश्चरणमयी धर्ममें बोधि अर्थात् रत्नत्रयकी प्राप्ति दुर्लभ है ।।१८६०।।
आगे उसकी दुर्लभता बतलाते हैं
गा०-जैसे लवणसमुद्रके पूर्व भागमें जुआ और पश्चिम भागमें उसकी लकड़ी डाल देनेपर दोनोंका संयोग दुर्लभ है। उसी प्रकार अनन्त संसारमें मनुष्य भवका पाना दुर्लभ है ॥१८६१।।
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