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________________ ५७९ विजयोदया टीका ५७९ एवं चेटुंतस्स वि संसइदो चेव गंथलाहो दु । ण य संचीयदि गंथो सुइरेणवि मंदभागस्स ।।११३५।। ‘एवं चेटुंतस्स वि' एवं चेष्टमानस्यापि संशयित एव ग्रन्थलाभः । न च संचयमुपयाति ग्रन्थः । सुचिरेणापि मन्दभाग्यस्य ॥११३५॥ जदि वि कहंचि वि गंथा संचीएजण्ह तह वि से णत्थि । तित्ती गंथेहिं सदा लोभो लामेण वडदि खु ॥११३६।। 'जदि वि' यद्यपि कथंचित्केनचित् प्रकारेण ग्रन्थाः संचयमुपेयुः । तथापि तस्य तृप्तिर्नास्ति ग्रन्थैः । सदा लोभो लाभेन वर्धते ।।११३६॥ जध इंधणेहिं अग्गी लवणसमुद्दो णदीसहस्सेहिं । तह जीवस्स ण तित्ती अत्थि तिलोगे वि लद्धम्मि ॥११३७॥ 'जघ इंधणेहि' इन्धनैर्यथाग्निः, यथा वा समुद्रो नदीसहस्रः । तथा परिग्रहर्न तृप्यति जीवस्त्रलोक्ये लब्धेऽपि ॥११३७।। पडहत्थस्स ण तित्ती आसी य महाधणस्स लुद्धस्स । संगेसु मुच्छिदमदी जादो सो दीहसंसारी ॥११३८॥ 'पडहत्थस्स' पटहस्तनामधेयस्य वणिजः न तृप्तिरासीत्तथा महाधनस्य लुब्धस्य । परिग्रह मूच्छितमतिरसौ जातो दीर्घसंसारः ॥११३८॥ तित्तीए असंतीए हाहाभूदस्स घण्णचित्तस्स । किं तत्थ होज्ज सुक्खं सदा वि पंपाए गहिदस्स ॥११३९।। "तित्तीए असंतोए' तृप्तावसत्यां । 'हाहाभूदस्य' लम्पटचित्तस्य किं तत्र सुखं भवेत् । आशया गृहीतस्य ॥११३९॥ गा०-इस प्रकार नाना चेष्टाएँ करनेपर भी परिग्रहकी प्राप्तिमें सन्देह ही रहता है। क्योंकि अभागे पुरुषको चिरकाल प्रयत्न करनेपर भी धनकी प्राप्ति नहीं होती ।।११३५॥ गा०-यदि किसी प्रकार धन मिल भी जाये तो उससे सन्तोष नहीं होता; क्योंकि धनलाभ होनेसे लोभ बढ़ता है ।।११३६॥ गा०-जैसे ईंधनसे आगकी तृप्ति नहीं होती, और हजारों नदियोंके मिलनेसे लवणसमुद्रकी तृप्ति नहीं होती। वैसे ही तीनों लोक मिल जानेपर भी जीवकी परिग्रहसे तृप्ति नहीं होती ॥११३७॥ गा०—पटहस्त नामक वणिक्के पास बहुत धन था। किन्तु वह बड़ा लोभी था। उसे सन्तोष नहीं था। अतः परिग्रहमें आसक्त रहते हुए उसका मरण हुआ और वह दीर्घसंसारी हुआ ।।११३८॥ ___गा०-परिग्रहसे तृप्ति नहीं होनेपर हाय-हाय करनेवाले परिग्रहके लम्पटीको, जो सदा तृष्णासे व्याकुल रहता है, परिग्रहसे क्या सुख हो सकता है ॥११३९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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