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________________ २५२ भगवती आराधना च भवति । वीर्याचारे प्रवृत्तश्च भवति ।' 'जीविदतण्हा य' या जीविते तृष्णा च 'वोच्छिन्ना' व्युच्छित्ति गता । न हि जीविताशावान् अशनादिकं त्यक्तुमीहते । जीविते तृष्णावान्यत्किचित्कृत्वा असंयमादिकं प्राणानेव धारयितुमुद्यतो भवति न रत्नत्रये ॥२४०॥ दुक्खं च भाविदं होदि अप्पडि बद्धो य देहरससुक्खे । मुसमूरिया कसाया विसएसु अणायरो होदि ॥२४१॥ 'दुःखां च भावियं होइ' दुःखं च भावितं भवति । दुःखभावना च कथमुपयोगिनी असंक्लेशेन दुःखसहने कर्मनिर्जरा जायते । क्रमेण च जायमाना निर्जरा निरवशेषकर्मापायस्योपाय इत्येवमुपयोगिनी इति मन्यते । अपि चासकृद्भावितदुःखो निश्चलो भवति' ध्याने। 'अप्पडिबद्धो य होइ' अप्रतिबद्धश्च भवति । 'देहरससोक्खें' शरीररससौख्ये । एतेषु त्रिषु प्रतिवद्धता समाधेविघ्नः स निरस्तो भवतीति भावः । 'मुसुमूरिदा कसाया' उन्मृदिताः कषायाः भवन्ति । कथं अनशनादिना कपायनिग्रहः कृतो भवति ? क्षमामार्दवार्जवसन्तोषभावनादिप्रतिपक्षमता विनाशयन्ति कषायान्नेतरदिति चेत् अयमभिप्रायः---अशनाद्यलाभे, स्वल्पलाभे, अशोभनानां वा लाभे क्रोधकषाय उत्पद्यते। तथा प्रचुरलाभाद्रसवद्भिक्षालाभाच्च लब्धिमानहमेवेति मानकषायः । अस्मदीयभिक्षागृहं यथान्ये न जानन्ति तथा प्रविशामीति चिन्ता मायाकषायः । अशने रसे प्राचुर्यविशिष्टे वासक्तिर्लोभकषायः । तथा वसत्यप्रदाने कोपः, तल्लाभे च मानकषायः प्राग्वत् । अन्येऽप्यागच्छन्तीति न मम वसतिरस्त्यवकाशो वाऽत्रेति वचनान्मायाकषायः । अहमस्य स्वामीति लोभः । इत्थं त्रयमें न लगनेसे व्याकुल होकर अशुभ परिणामोंमें ही लगता है। अपनी शक्तिको छिपाता नहीं है और वीर्याचारमें प्रवृत्त होता है । जीवनकी जो तृष्णा है वह भी नष्ट हो जाती है। जिसे जीनेकी तृष्णा है वह भोजनादिकका त्याग करना नहीं चाहता। जीवनकी तृष्णावाला जो कुछ भी असंयम आदि करके प्राणधारण करने में ही तत्पर रहता है, रत्नत्रयमें नहीं लगता ॥२४०।। गा.-टो०-दुःखका सहन होता है। बिना किसी संक्लेशके दुःख सहनेसे कर्मोंकी निर्जरा होती है । और क्रमसे होनेवाली निर्जरा समस्त कर्मोके विनाशका उपाय है इसलिए दुःखभावना उपयोगी हैं। दूसरे, बार-बार दुःखकी भावना करने वाला ध्यान में निश्चल होता है। शरीर, रस और सुखमें अप्रतिबद्ध-अनासक्त होता है। इन तीनोंमें आसक्ति समाधिमें विघ्न करती है । अतः उसका निरास होता है । कषायोंका मर्दन होता है । शंका-अनशन आदिसे कषायका निग्रह कैसे होता है ? कषायोंकी विरोधी क्षमा, मार्दव, आर्जव, सन्तोष भावना आदि कषायोंको नष्ट करते हैं, अन्य नहीं। समाधान-अभिप्राय यह है कि भोजन आदि न मिलने पर, या कम मिलने पर अथवा अरुचिकर मिलने पर क्रोध कषाय उत्पन्न होती है। तथा प्रचुर लाभसे और स्वादयुक्त भिक्षाके लाभसे मैं 'लब्धि सम्पन्न हूँ' ऐसी मान कषाय उत्पन्न होती है। मेरे भिक्षा लेनेके घरको दूसरे न जान सकें इस तरह घरमें प्रवेश करूँ, यह चिन्ता माया कषाय है। रसीले अत्यधिक भोजनमें आसक्ति लोभ कषाय है। तथा वसति नहीं देने पर क्रोध और उसके मिलने पर मानकषाय होती है जैसा पहले भोजनके सम्बन्धमें कह आये हैं। दूसरे भी आने वाले हैं इस वसतिमें स्थान नहीं है १. तीतिध्या-आ० मु० । २. वसतेर-आ० मु०। ३. शश्चात्र-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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