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________________ ६६ भगवती आराधना स्तत्स्वामिनश्च कस्मान्निदिश्यते । प्रस्तुतपरित्यागमप्रस्तुताभिधानं चन क्षमते विद्वांसः । अत्रोच्यते-न अप्रस्तुतं अंतरनिर्दिष्टं मरणं । आराधनानुगतमरणस्यैवेह शास्त्रेऽभिधेयत्वेनेष्टत्वात् । आराधनायाश्च आराधकमतरणासंभवात् । स्वामी च निर्देष्टव्य एवेति सूरेरभिप्रायः ॥ ., अत एव प्रस्तुतां प्राथमिकी दर्शनाराधनां आचष्टे तत्थोवसमियसमत्तं खइयं खवोवसमियं वा । आराहतस्स हवे सम्मत्ताराहणा पढमा ॥३०॥ तत्थोवसमियसम्मत्तमित्यादिना । अथवा अंतरसूत्रनिर्दिष्टं बालमरणव्याख्यानं प्रस्तुतां प्राथमिकी सम्यक्त्वाराधनां पुरस्कृत्य प्रवर्तते इत्यत आह-तत्थोवसमियसमत्त । अथवा सम्यग्दर्शनविशेषस्य कस्यचिदेव आराधना उत सर्वस्येत्याशंका । कुतः संदेहः ? आचार्यमतभेदेन पदानामर्थद्वैविध्यात्सामान्यं पदानामभिधेयं । 'पदाच्छु तार्थसामान्यनिर्भासप्रतीत्युत्पत्तनं हि गामित्यतः पदाच्छुक्लां कृष्णां शबलामिति वा प्रतीतिः, खंडां मुंडां इति वा जायते । यच्च पदोपलब्धिकार्यभूतायां बुद्धो न प्रतिभाति तत्कथं शब्दस्याभिधेयतां गंतुमुत्सहते । अप्रतीयमानस्याप्यर्थत्वे अयमेवास्यार्थो नान्य इतीयं व्यवस्था न स्यात् । तेन सामान्यमेवार्थ इति । अन्ये तु मन्यते त्यागोपादानोपेक्षारूपा हि लोकव्यवहृतिस्तत्र पुमांसं प्रवर्तयितु शब्दाः प्रयुज्यंते । दुःखसाधनं यत्तत्त्यन करके मरणके भेद और उनके स्वामियोंका कथन क्यों किया गया? विद्वान् गण प्रस्तुतके परित्याग और अप्रस्तुतके कथनको सहन नहीं करते? ... समाषान--बीचमें जो मरणका कथन किया है वह अप्रस्तुत नहीं हैं । आराधना पूर्वक होनेवाले मरणका ही इस शास्त्रमें कथन करना इष्ट है। वही इसका अभिधेय-प्रतिपाद्य विषय है। और आराधकके बिना आराधना होना असम्भव है। अतः स्वामीका भी कथन करना ही चाहिए । यह आचार्यका अभिप्राय है ॥२९॥ . . इसीलिए प्रस्तुत प्रथम दर्शनाराधना को कहते हैं गाथा-उन सम्यक्त्वोंमें ओपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व अथवा क्षायोपशमिक सम्यक्त्वकी आराधना करने वालेके प्रथम सम्यग्दर्शन आराधना होती है ॥३०॥ टी०-अथवा इसके पूर्वकी गाथामें कहा बालमरणका व्याख्यान प्रस्तुत प्रथम सम्यक्त्वाराधनाको लेकर ही किया है अतः यहां उसका कथन करते हैं।। शंका-यहाँ शंका होती है कि किसी सम्यग्दर्शन विशेषकी आराधना होती है या सबकी होती है ? इस सन्देहका कारण यह है। आचार्यों के मतभेदसे पदोंका अर्थ दो प्रकारका माना जाता है। एक मत है पदोंका अभिधेय सामान्य है क्योंकि पदसे सामान्य अर्थका बोध होता है। 'गौ' इस पदसे सफेद, काली या चितकबरी गौ की अथवा खण्डी या मुण्डी गौ की प्रतीति नहीं होती और पदकी उपलब्धिकी कार्यभूत बुद्धिमें जिसका प्रतिभास नहीं होता उसे शब्दका वाच्य कैसे माना जा सकता है । शब्द सुनकर जिस अर्थकी प्रतीति नहीं होती उसे भी यदि उसका अर्थ माना जाता है तो इस पदका यही अर्थ है, अन्य नहीं, यह व्यवस्था नहीं बनेगी। इसलिए सामान्य ही पदका अर्थ है। __ अन्य आचार्य मानते हैं कि लोक व्यवहार, त्याग, ग्रहण और उपेक्षा रूप है । उस व्यवहारमें पुरुषोंको प्रवृत्त करनेके लिए शब्दोंका प्रयोग किया जाता है। जो दुःखका साधन होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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