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________________ ६७ विजयोदया टीका ज्यते । सुखसाधनमुपादीयते । तदुभयस्यासंपादकमुपेक्ष्यते। विशिष्टमेव च वस्तु सुखादीनां संपादकं । तथाहि-स्त्रीवस्त्रगंधमाल्यादिकं अतिशयितमेवादातु उत्सहन्ते । दुःखसाधनं चात्मनिकटवत्येव कंटकादिकं परिजिहीर्षन्ति । तेन शब्देनापि तदथिनां तथाभूतमेव वस्तु प्रतिपाद्यमित्यभ्युपगन्तव्यं । अतो विशेषः पदानामर्थः इति । सारूप्यानामनेकविशेषवतिनां पदानामेकपदप्रयोगाद्यदि नाम विशेषो न प्रतीयते नैतावता विशेषस्याभिधेयताहानिः पदांत रसमवधाने विशेषप्रतीतेरनुभवसिद्धत्वात् इति जैनानामुभयं पदार्थः पदानामभयत्र प्रतीत्युत्पत्तः । तथाहि-न हिंस्याः प्राणिनः प्राणिसामान्यं परिहार्यत्वेन प्रतीयते । देवदत्तमानयेत्युक्ते पुरुषविशेषमवगच्छन्ति । ततो न ज्ञायते 'समत्तमि य' इत्यत्र सामान्यं सम्यक्त्वं गृहीतं उत तद्विशेष इति तेन तत्संदेहनिवृत्तिः क्रियते । 'तत्थ' तेषु सम्यक्त्वेषु । 'उवसमियसम्मत्तं' अनंतानुबंधिक्रोधमानमायालोभानां सम्यक्त्वमिथ्यात्वसम्यमिथ्यात्वानां च सप्तानामपशमादुपजातं तत्त्वश्रद्धानं औपशमिकं सम्यक्त्वं । तासामेव सप्तप्रकृतीनां क्षयादुपजातवस्तुयाथात्म्यगोचरा श्रद्धा क्षायिकं दर्शनं । तासामेव कासांचिदुपशमात अन्यासां च क्षयादुपजातं श्रद्धानं क्षायोपशमिकं । वा शब्दः प्रत्येकं संवध्यते । औपशमिकं वेत्यादिना क्रमेण । 'आराधंतस्स' आराधयतः । 'हवें भवेत् । 'सम्मत्ताराहणा' सम्यक्त्वाराधना। 'पढमा प्रथमा । “अविरदसम्मादिट्ठी मरंति बालमरणे" इत्युक्तं । तत्राविरतग्रहणं सम्यग्दृष्टेविशेषणत्वेनोपात्त । प्रतीतेन हि ९ उसको त्याग दिया जाता है। सुखके साधनको ग्रहण किया जाता है। जो न दुःखका साधन होता है, न सुख का, उसकी उपेक्षा की जाती है । तथा विशिष्ट वस्तु ही सुखादिका साधक होती है। जैसे स्त्री, वस्त्र, गंध, माला आदि जो उत्तम होती है उसे ही ग्रहण करनेके लिए उत्साहित होते हैं। दुःखके साधन कण्टक आदि अपने निकटवर्ती भी हों तो उन्हें छोड़ देते हैं अतः शब्दके द्वारा भी सुखादिके अर्थी पुरुषोंको विशिष्ट वस्तु ही प्रतिपाद्य है ऐसा स्वीकार करना चाहिए। अतः पदोंका अर्थ विशेष है। समानाकार अनेक विशेषोंमें रहनेवाले पदोंका एक पदके प्रयोगसे यदि विशेषका अर्थ प्रतीत नहीं होता तो इससे विशेषके शब्दार्थ होनेको कोई हानि नहीं पहुँचती, क्योंकि उसके साथ अन्य पदका सम्बन्ध होनेपर विशेषकी प्रतीति अनुभवसे सिद्ध है। समाधान—जैनोंके मतमें पदोंका अर्थ सामान्य भी है और विशेष भी है। दोनों की ही प्रतीति होती है। वही दिखलाते हैं 'प्रणियोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिए' ऐसा कहनेपर प्राणी सामान्य अर्थात् प्राणिमात्रकी हिंसा नहीं करनी चाहिए यही प्रतीति होती है। और 'देवदत्तको लाओ' ऐसा कहनेपर पुरुष विशेषका बोध होता है । इस तरह पदका अर्थ दोनों होनेसे यह ज्ञात नहीं होता कि 'सम्मत्तम्मि' पदसे सामान्य सम्यक्त्व ग्रहण किया है या विशेष सम्यक्त्व ग्रहण किया है ? इसलिए सन्देहकी निवृत्तिके लिए औपशमिक आदि सम्यक्त्व कहा है। अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्व इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे उत्पन्न हुआ तत्त्वश्रद्धान औपशमिक सम्यक्त्व है। उन्हीं सात प्रकृतियोंके क्षयसे उत्पन्न हुई श्रद्धा, जो वस्तुओंके यथार्थस्वरूपको विषय करती है, क्षायिक सम्यग्दर्शन है। उन्हींमेंसे किन्हींके उपशम और अन्य प्रकृतियोंके क्षयसे उत्पन्न श्रद्धान क्षायोपशमिक दर्शन है। 'वा' शब्द प्रत्येकके साथ लगता है। 'अविरदसम्यग्दृष्टी बालमरणसे मरता है' ऐसा जो पहले कहा है उसमें 'अविरत' पदका ग्रहण सम्यग्दृष्टीके विशेषणके रूपमें किया है। जो प्रतीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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