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________________ भगवती आराधना इय अद्वगुणोवेदो कसिणं आराधणं उवविधेदि । खबगो वि तं भयवदी उवगृहदि जादसंवेगो ॥५०९॥ "इस एवं ! 'अठ्ठगुणोवेदों' आचारवानित्याद्यष्टगुणोपेतः सूरिः । 'कसिणं' कृत्स्नां । 'आराधणं' बाराधना । “उवविदि' ढोकयति । 'खवगो वि' क्षपकोऽपि । 'त' तां 'भगववि' भगवतीं सकलबाधापनयनमाहात्म्यावाती। उवमूहदि' आलिंगति । 'जादसंवेगो' उत्पन्नसंसारभीरुत्वः । सुठ्ठिदं सम्मत्तम् ॥५०९।। एवा सुठ्दिं इत्येतद्वयाख्यातं, इत उत्तरं उवसम्पा इत्येतद्व्याख्यायते एवं परिमग्गित्ता णिज्जवयगुणेहिं जुत्तमायरियं । उपसंपज्जइ विज्जाचरणसमग्गो तगो साहू ॥५१०॥ "एवं परिमम्मित्ता' अन्विष्य । कं ? 'आयरियं' आचार्य । कीदृग्भूतं ? "णिज्जवयगुणेहि' निर्यापकगुपाराचाखत्वादिभिः समन्वितं । 'उवसंपज्जदि' ढोकते । कः ? 'तगों' सः । 'साहू' साधुः । 'कोदग्भूतः' ? बिचावरणसमम्मो ज्ञानेन चारित्रेण समग्रः सम्पूर्णः ॥५१०॥ गुरुकुले आत्मनिसर्गः उवसपानाम समाचारः । तत्क्रमं निरूपयति तियरणसवावासयपडिपुण्णं किरिय तस्स किरियम्मं । विणएणमंजलिकदो वाइयवसभं इमं भर्णाद ।।५११।। .. नियरबसवावासयपडिपुण्णं किरिय तस्स किरियम्म'। तस्य निर्यापकस्य सूरेः कृतिकर्म वन्दनां ला। कीदृशं विवरणसवावासगपडिपुण्णं' मनोवाक्कायात्मसर्वावश्यकप्रतिपूर्णां । सामायिकं, चतुर्विंशतिस्वयोवन्दन्ना, अतिक्रमणं, प्रत्याख्यानं, कायोत्सर्गः, इत्येते मनोवाक्कायविकल्पेन विविधाः षडावश्यकसंज्ञिताः। मामला सर्वसाबद्यायोगनिवृत्तिः, वचसा 'सव्वं सावज्जजोगं पचक्खामि' इति वचनं । कायेन सावधक्रियानन् इन चारवत्त्व बादि गुणोंसे युक्त निर्यापकाचार्यकी कीर्ति सब जगह फैलती है ॥५०८।। मा-इस प्रकार आचारवान् आदि आठ गुणोंसे सहित आचार्य समस्त आराधनाको प्राप्त होता है। थपक भी संसारसे विरक्त होकर समस्त बाधाओंको दूर करनेसे माहात्म्यशाली उस भयावती आराधनाका आलिंगन करता है उसे अपनाता है ।।२०९॥ . इस प्रकार सुस्थित गुणका व्याख्यान हुआ। इसमें आगे उपसंपदाका कथन करते हैं गा. इस प्रकार ज्ञान और चारित्रसे सम्पूर्ण क्षपक निर्यापकके आचारवत्व आदि गुणोंसे युक्त आचार्यको खोजकर उनके निकट जाता है ।।५१०॥ गुरुकुलमों आत्मोत्सर्ग करनेको 'उवसंपा' नामक समाचार कहते हैं। यहाँ उसके क्रमका कथन करते हैं मा०—मान वचन कायसे छह आवश्यकोंको पूर्णरूपसे करके निर्यापकाचार्यकी वन्दना करता है और विनयपूर्वक दोनों हाथोंको जोड़ उनकी अंजली बनाकर उन आचार्य श्रेष्ठसे इस प्रकार कहता है ॥५१शा . टी--सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक मान वचन कायके भेदसे तीन भेदरूप होते हैं । मनसे सर्व सावद्ययोगकी निवृत्ति, वचनसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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