SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 448
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदया टीका ३८१ ष्ठानं, मनसा चतुर्विशति तीर्थकृतां गुणानुस्मरणं 'लोगस्सुज्जोययरे' इत्येवमादीनां गुणानां वचनं । ललाटविन्यस्तकरमुकुलता जिनेभ्यः कायेन । वन्दनीयगणानुस्मरण मनोवन्दना । वाचा तद्गुणमाहात्म्यप्रकाशनपरवचनोच्चारणं । कायवन्दना प्रदक्षिणीकरणं कृतानतिश्च । मनसा कृतातिचारान्निवृत्तिः । हा दुष्कृतमिति वा मनःप्रतिक्रमणं । सूत्रोच्चारणं वाक्प्रतिक्रमणं । कायेन तदनाचरणं कायप्रतिक्रमणं । मनसातिचारादीन्न करिष्यामि इति मनःप्रत्याख्यानं । वचसा तन्नाचरिष्यामि इति उच्चारणं । कायेन तन्नाचरिष्यामि इत्यङ्गीकारः । मनसा शरीरे ममेदभावनिवृत्तिः मानसः कायोत्सर्गः। कार्य वोसरामीति वचनं वाचा कायोत्सर्गः। प्रलम्बभुजस्य, चतुरङ्गलमात्रपादान्तरस्य निश्चलावस्थानं कायेन कायोत्सर्गः । कायापायनिरासमकृत्वा एकान्ते गुरावासीने प्रसन्नचेतसि शनैरागत्य शरीरं भूमिं च प्रतिलेख्य अदूरे असमीपे आसित्वा कृताञ्जलिः भगवन्कृतिकर्मवन्दनामिच्छामीति आलोच्य अनुज्ञातः शनैरुत्थाय मूर्धन्यस्तकर अविलम्बितमनुद्रुतं सामायिकं पठेत् । सूत्रानुगतं, अविचलं, अविकृतं स्थितः कृतकायोत्सर्गश्चतुर्विंशतिस्तवमभिधाय सूरिणानुरक्तमना गुरुस्तवनं पठेत इत्येषा कृतिकर्मवन्दना। वन्दनोत्तरकालं 'विणएण' विनयेन 'अंजलिकदो' मुकुलीकृताञ्जलिः । 'वाइयवसभं' आचार्यवृषभं 'इणं' इदं । भवि ब्रवीति इति ॥५११॥ तुज्झेत्थ बारसंगसुदपारया सवणसंघणिज्जवया। तुझं खु पादमले सामण्णं उज्जवेज्जामि ॥५१२।। 'तुझेत्य' यूयमत्र । 'बारसंगसुदपारगा' द्वादश आचारादीनि अङ्गानि यस्य तत् द्वादशाङ्गं श्रुतं सांगर इव तस्य पारं गताः । 'समणसंघणिज्जवगा' श्रामयन्ति तपस्यन्ति इति श्रमणाः तेषां समुदायः श्रमणसंघः 'मैं सर्व सावद्ययोगको त्यागता हूँ' ऐसा कहना, कायसे सावध क्रियाओंका न करना। मनरो चौबीस तीर्थकरोंके गुणोंका स्मरण, वचनसे 'लोगस्सुजोयकरे' इत्यादि स्तुतिका पढ़ना, कायसे दोनों हाथ मुकुलित करके मस्तकसे लगाना। वंदनीय गुणोंका, स्मरण करना मनोवन्दना है। वचनसे उनके गुणोंके माहात्म्यको प्रकट करने वाले वचनोंका उच्चारण करना वचन वन्दना है । प्रदक्षिणा करके नमस्कार करना काय वन्दना है। मनसे किये हुए दोषोंकी निवृत्ति या हा, मैंने बुरा किया' ऐसा सोचना मनःप्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण सूत्रका पढ़ना वाक् प्रतिक्रमण है । कायसे उन दोषोंका न करना काय प्रतिक्रमण है। मनसे मैं अतिचार आदि नहीं करूँगा ऐसा संकल्प मनःप्रत्याख्यान है। मैं उन्हें नहीं करूँगा ऐसा कहना वचन प्रत्याख्यान है। कायसे नहीं करूंगा ऐसा स्वीकार करना काय प्रत्याख्यान है । मनसे शरीरमें 'यह मेरा है' ऐसा भाव न होना मानस कायोत्सर्ग है। वचनसे मैं कायका त्याग करता है ऐसा कहना वचन कायोत्सग है । दोनों हाथोंको लटकाकर और दोनों पैरोंके मध्य में चार अंगलका अन्तर रखते हए निश्चल खड़ा होना कायसे कायोत्सर्ग है । कायके अपायका निरास न करके (?) जब गुरु एकान्त में बैठे हों और प्रसन्न मन हों तब धीरेसे आकर शरीर और भूमिकी प्रतिलेखना करके, गुरुसे न तो दूर और न समीप बैठकर हाथोंकी अंजलि बनाकर निवेदन करे कि भगवन् ! कृतिकर्म वन्दना करना चाहता हूँ। इस प्रकार आलोचना करके गुरुकी अनुज्ञा मिलने पर धीरेसे उठकर दोनों हाथ मस्तकसे लगा न बहुत धीरे, न बहुत जल्दीमें सामायिक पाठ पढ़े । शास्त्रके अनुसार विकार रहित निश्चल खड़े होकर कायोत्सर्ग करे। फिर चौबीस तीर्थकरोंका स्तवन करे। फिर आचार्यमें अनुराग पूर्वक गुरु स्तवन • पढ़े । यह कृतिकर्म वन्दना है । वन्दनाके अनन्तर विनयपूर्वक दोनोंहाथ जोड़ आचार्यसे इस प्रकार निवेदन करे ।।५११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy