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________________ ३८२ भगवती आराधना तस्य निर्यापकाः । 'तुझं खु. पादमूले' युष्माकं पादमूले 'उज्जवेज्जामि' उद्योतयिष्यामि । 'सामण्णं' श्रामण्यं ॥५१२।। आत्मेच्छां सूरये प्रकटयति पव्यज्जादी सव्वं कादूणालोयणं सुपरिसुद्धं । दसणणाणचरित्ते णिस्सल्लो विहरिदुं इच्छे ।।५१३॥ 'पव्वज्जादी सव्वं' दीक्षाग्रहणादिकां सर्वा । 'कादूणालोयणं' कृत्वालोचनां 'सुपरिसुद्ध" दोषरहितां । 'दंसणणाणचरित' दर्शनज्ञानचरित्र। 'णिस्सल्लो' शल्यरहितो भूत्वा । 'विहरिदु' विहत्त आचरितुं । 'इच्छे' इच्छामि ॥५१३।। एवं कदे णिसग्गे तेण सुविहिदेण वायओ भणइ । अणगार उत्तमढे साधेहि तुमं अविग्घेण ॥५१४॥ ‘एवं कदे णिसग्गे' स्वभारत्यागे कृते । केण 'तेण सुविहिदेण' तेन सुचरितेन क्षपकेण । 'वायओ भणइ' वाचकः सरिर्वदति । 'अणयार' त्यक्तद्रव्यभावागारत्वादनगारः तस्य संबोधनं । 'उत्तमट्ठ' उत्तम प्रयोजनं रत्नत्रयं द्रव्यं 'साहि' साधय । 'तुम' त्वं । 'भविग्घेण' अविघ्नेन ॥५१४॥ धण्णोसि तुमं सुविहिद एरिसओ जस्स णिच्छओ जाओ। संसारदुक्खमहणी . घेत्तु आराहणपडायं ।।५१५।। 'धण्णोसि तुम' धन्योऽसि । पुण्यवानसि 'तुम' भवान् । 'सुविहिद' यते । 'एरिसओ जस्स णिच्छ ओ जाओ' । उपलक्षणपरं मनोज्ञाहारग्रहणे ईदृग्यस्य निश्चयो जातः । 'संसारदुक्ख महणो' संसारे चतुर्गतिपरिभ्रमणे यानि दुःखानि तन्मईनोद्यतां । 'घेत्तु' ग्रहीतुं । 'आहारणापडागं' आराधनापताकां । रत्नत्रयाराधनया कर्माग्यपयान्ति । सदपगमात्तदुःखनिवृत्तिः इति भावः ।।५१५।। उपसंपा। गा-आप द्वादशांग श्रुत सागरके पारगामी हो । आचार आदि बारह जिसके अंग हैं वह द्वादशांग श्रत समद्रके समान है आपने उसे पार कर लिया है। तथा जो श्राम्यन्ति अर्थात् तपस्या करते हैं वे श्रमण हैं। उनका समुदाय श्रमणसंघ है उसके आप निर्यापक हैं। मैं आपके चरणोंमें बैठकर अपने श्रामण्यको उद्योतित करूंगा ॥५१२।। गा०-अपनी इच्छा आचार्यके सामने प्रकट करता है-दीक्षा ग्रहण करनेसे लेकर जो दोष किए हैं उनको दोषरहित आलोचना करके मैं दर्शन, ज्ञान और चारित्रको शल्यरहित होकर पालन करना चाहता हूँ ॥५१३।। गा०—इस प्रकार उस उत्तम चरित वाले क्षपकके द्वारा अपना भार त्यागने पर वाचक आचार्य कहते हैं-हे द्रव्य और भावरूप अगार (घर) का त्याग करने वाले अनगार ! तुम बिना किसी विघ्न बाधाके उत्तम अर्थ रत्नत्रय रूप द्रव्यकी साधना करो ॥५१४॥ गा०-हे सुविहित श्रमण ! तुम धन्य हो-पुण्यशाली हो, जो तुभने चार गतियोंमें परिभ्रमण रूप संसारमें जो दुःख हैं, उन दुःखोंको नष्ट करने पर तत्पर आराधना पताकाको ग्रहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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