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विजयोदया टीका
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श्चिकीर्षतस्तत्र कस्मात् प्रेक्षापूर्वकारिणः क्रमाश्रयणमन्याय्यं ? उपेयात्मलाभहेतुत्वमात्रनिवन्धनमुपायानामुपायत्वं, तद्यत्र यत्रास्ति तस्य तस्योपायता । तेन सर्व एवाहदादिगोचरा गुणानुरागास्तत्पुरःसरवाक्कायक्रिया अनादृतक्रमा भवन्ति वाञ्छितफलप्रसाधना एकैकरूपा बहवोऽपि । इमामानुपूर्वीमन्तरेणैषा सिद्धिः साध्यस्यान्यथा न विद्यत इति यत्र तत्राश्रीयते उपायक्रमः । यथा घट सिसाधयिषतो मृन्मर्दनपिण्डकरणचक्रारोपणादयः। युगपदनेकवचनप्रवृत्तिरसंभविन्येकस्य वरिति नान्तरीयकतया क्रमाश्रयणं तत्र च कामचारः। तथाहि, 'सिद्धं सिद्धठाणं ठाणमणोवमसुहगयाणमिति' (-सन्मति ।।१) । शासनगुणानुस्मरणमेव केवलं । क्वचित्तीर्थकृत्स्वपि वीरस्वामिनः एव प्रथमं नमस्क्रिया
'एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघादिकम्ममलं । पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥ सेसे पुण तित्ययरे ससव्वसिद्ध विसुद्धसब्भावे । समणे य गाणदंसणचरित्ततववीरियायारे ॥ इति
-प्रव० सा० १११-२। क्वचिदेकप्रघट्टेन, 'इंदसदवंदिदाणं तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणमिति ।' –पञ्चास्ति० १।
क्वचिज्जीवगुण एवानाश्रितार्हदादिस्वामिविशेषो निरूपितः “धम्मो मङ्गलमुक्किट्ट" इति । अन्याय्य कैसे है ? उपेय अर्थात कार्यके आत्म लाभमें हेतु होना मात्र उपाय अर्थात् कारणोंके उपायपनेका निबंधन है । अर्थात् कारणोंमें कारणपना इसीसे होता है कि उनसे कार्य उत्पन्न होता है। वह जहाँ-जहाँ है वहाँ-वहाँ कारणपना है । अत: अर्हन्त आदि विषयक सभी गुणानुराग और उस पूर्वक वचन और कायकी क्रिया, विना क्रमके भी इच्छित फलकी साधक होती है चाहे वह एकएक रूप हो या बहुत हो। किन्तु जहाँ कार्यकी सिद्धि क्रमको अपनाये विना नहीं होती वहाँ उपायोंका क्रम अपनाना होता है। जैसे जो घड़ा बनाना चाहता है । वह पहले मिट्टीको मलता है, फिर उसका पिण्ड बनाता है, फिर उसे चाक पर रखता है आदि। इस क्रमके विना घड़ा नहीं बन सकता। इसलिए यहाँ क्रम आवश्यक है। किन्तु सर्वत्र क्रम आवश्यक नहीं है।
तथा एक वक्ता एक साथ अनेक वचन व्यवहार नहीं कर सकता; इसलिए नमस्कार करनेमें क्रमका आश्रय लेना होता है। किन्तु उसमें यह अपेक्षित नहीं है कि पहले किसे नमस्कार करना। नमस्कार करनेवाला अपनी अपनी इच्छानुसार नमस्कार करता है। जैसे सन्मतिसूत्रके प्रारम्भमें 'सिद्ध सिद्धट्ठाणं' आदिसे केवल जिनशासनके गुणोंका ही स्मरण किया है। कहीं पर तीर्थंकरोंमें से भी वीर स्वामीको ही प्रथम नमस्कार किया है। जैसे प्रवचनसारके प्रारम्भमें कहा है-'यह मैं सुरेन्द्रों, असुरेन्द्रों और नरेन्द्रोंसे वन्दित तथा घाति कर्ममलको धो डालनेवाले और धर्मके कर्ता वर्धमान तीर्थंकरको नमस्कार करता हूँ। तथा विशुद्ध सत्तावाले शेष तीर्थंकरोंको, समस्त सिद्धोंके साथ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचारसे युक्त श्रमणोंको नमस्कार करता हूँ।'
__कहीं एक साथ सब जिनोंको नमस्कार किया है। जैसे पंचास्तिकायके प्रारम्भमें कहा है-'सौ इन्द्रोंके द्वारा वन्दित और तीनों लोकोंका हित करनेवाले मिष्ट और स्पष्ट वचन बोलनेवाले, अनन्तगुणशाली भवजेता जिनोंको नमस्कार हो।'
कहीं अर्हन्त आदि स्वामीविशेषका आश्रय न लेकर जीवके गुणका ही कथन किया है जैसे दशवैकालिकसूत्रके प्रारम्भमें 'धर्म उत्कृष्ट मंगल है' आदि कहा है।
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