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________________ विजयोदया टीका ७६३ 'ठाणाणि सव्वाणि' सर्वाणि स्थानानि । तिष्ठन्त्येतेषु जीवा इति स्थानानि ग्रामनगरपत्तनादीनि । इदं मदीयं स्थानं अत्राहं वसामीति मा कृथाः संकल्पं । तानि अनित्यानि नित्यबुद्धया परिगृहीतानि विनाशे सङ्कले 'शानानयन्तीति कथितं । अथवा तिष्ठन्त्यस्मिन्स्वकृतविचित्रकर्मोदयात्प्राणभृत इतीन्द्रत्वं, चक्रलांछनत्वं, गणाधिपतित्वं वा एतानि स्थानान्यनित्यानि ॥१७१२।। णावागदाव बहुगइपधाविदा हुति सव्वसंबंधी। सव्वेसिंआसया वि अणिच्चा जह अब्भसंघाया ॥१७१३।। 'णावागदाव' जलयानपावारूढा इव 'बहुगदिपधाविदा हुति सव्वसंबंधी' विचित्रशुभाशुभपरिणामोपात्तगतिकर्मवशात्तदुपनीयमानदेवमानवनारकतियंचाख्यगतिपर्यायग्रहणाय कृतप्रयाणा बन्धवः सर्वेऽपि । एतेन बन्धुताया अनित्यतोता। उपात्तगत्यपरित्यागे बन्धुता स्थिरा भवति, उपात्ता चेत् त्यक्तान्या च गृहीता पितृपुत्रादीनां गत्यन्तरमुपगतामपि बन्धुत्वे स्वजनपरजनविवेक एव न स्यादिति मन्यते । 'सोसि आसया वि' सर्वेषामाश्रया अपि यानाश्रित्य प्राणिनो जीवितुमुत्सहन्ते तेप्याश्रयाः स्वामी भूत्यः पुत्रो भ्रातेत्येवमादयोऽनित्या यथा अन्भसंघादा अभ्रसंघाता इव ॥१७१३।। संवासो वि अणिच्चो पहियाणं पिण्डणं व छाहीए । पीदी वि अच्छिरागोव्व अणिच्चा सबजीवाणं ॥१७१४॥ 'संवासो वि' सहावस्थानमपि बन्धुभिर्मित्रः परिजनैर्वा, 'अणिच्चो' अनित्यः । 'पहियाणं पिण्डणं व जिनमें जीव ठहरते हैं उन्हें स्थान कहते हैं । वे स्थान हैं-गाँव, नगर आदि। यह मेरा स्थान हैं। मैं यहाँ रहता हूँ। ऐसा संकल्प तुम मत करो। वे स्थान अनित्य हैं। उन्हें नित्य समझकर ग्रहण करनेपर यदि वे नष्ट होते हैं तो मनमें बड़ा संक्लेश होता है। अथवा अपने किये विचित्र कर्मके उदयसे प्राणी जिनमें रहते हैं वे स्थान हैं इन्द्रपद, चक्रवर्तीपद, गणधरपद । ये सब स्थान अनित्य हैं ।।१७१२।। ___गा०-टी० -सब सम्बन्धी विचित्र शुभ या अशुभ परिणामोंसे बांधे गये गति नामकर्मके वशसे प्राप्त मनुष्यगति, देवगति, नारकगति और तिर्यञ्चगति रूप पर्यायको ग्रहण करनेके लिये जानेवाले हैं अतः वे नावपर सवार यात्रियों के समान हैं । जैसे नावपर सवार यात्री अपने-अपने स्थानपर चले जाते हैं उसी प्रकार हमारे सम्बन्धी अपने-अपने परिणामोंके अनुसार गति नामकर्मका बन्ध करके मरकर अपनी-अपनी गतिमें चले जाते हैं। इससे बन्धुताको अनित्य कहा है। जो जिस गतिमें है वह उसी गतिमें रहे, उसे छोड़े नहीं तो बन्धुपना स्थिर होता है। जिस गतिमें है उसे छोड़ अन्य गतिको ग्रहण करे तो नित्य कैसे हुई। जो पिता पुत्र आदि मरकर दूसरी गतिमें चले गये फिर भी यदि वे अपने बन्धु हैं तो अपने और परायेका भेद ही नहीं रहता। तथा जिन आश्रयोंसे प्राणी जीवित रहते हैं वे आश्रय भी, जैसे स्वामी और सेवक, पत्र, भ्राता आदि ये सब मेघपटलके समान अनित्य हैं ॥१७१३।। गा०-टो०-जैसे नाना दिशाओं और नाना देशोंसे आये हुए और भिन्न-भिन्न स्थानोंको १. शशतान्या-मु० । २. प्राणिन इ-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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