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________________ १६५ विजयोदया टीका तत्र प्रत्यक्षकायिकविनयप्रदर्शनाय गाथाचतुष्टयमुत्तरम् अब्भुट्ठाणं किदियम्भ गवसणं अंजली य मुंडाणं । पच्चुग्गच्छणमेत्तो पच्छिद अणुसाधणं चेव ॥१२१।। 'अब्भुठ्ठाणं' अभ्युत्यानं गुर्वादीनां प्रवेशनिःक्रमणयोः । 'किदियम्म' णवंसणं, वंदना, शरीरावनतिश्च । 'अंजली य' कृतांजलिपुटता च । 'मुडाणं' शिरोवनतिश्च । 'पच्चुग्गच्छणं' प्रत्युद्गमनं । आसीने स्थिते वा गुरो । 'पच्छिद अणुसाधणं चेव' स्वयं गच्छतः दूरात्परिहृत्य निभृतकरचरणस्यावनतगात्रस्य गमनं, सहगमे वा पृष्टतः स्वशरीरमात्रप्रमाणभूभागेन तं परिहृत्य गमनं ॥१२१॥ णीचं ठाणं णीचं गमणं णीचं च आसणं सयणं । आसणदाणं उवगरणदाणमोगासदाणं च ।।१२२॥ णीयं च आसणं नीचरासनं । पृष्ठतः स्वहस्तपादश्वासादिभिरुपद्रुतो न भवति यथा गुर्वादिस्तथासनं । अग्रतोऽभिमखात मनागपसत्य वामपार्वेऽनद्धतस्येषदवनतोत्तमांगस्य चासनं । आसने गरावपविष्टे स्वयं भमावासनं च । 'सयणं च णीयमिति' पदघटना। नीचैः शयनमिति यावत् । 'अनुन्नते देशे शयनं, गुरुनाभिप्रमाणमात्रभूभागे वा स्वशिरो भवति यथा तथा शयनं । हस्तपादादिभिर्वा यथा न घट्यते गर्वादिः । 'आसणवाणं' र गुरु उनमेंसे प्रत्यक्षकायिक विनयको चार गाथाओंसे दिखलाते हैं टी०-गुरु आदिके प्रवेश करनेपर या बाहर जानेपर अभ्युत्थान-खड़े होना, कृतिकर्म अर्थात् वन्दना करना, णवंसण अर्थात् शरीरको नम्र करना, दोनों हाथोंको जोड़ना, सिरको नवाना, प्रत्युद्गमन अर्थात् गुरुके बैठने अथवा खड़े होनेपर उनके सामने जाना, और जब गुरु जावें तो उनसे दूर रहते हए अपने हाथ पैरको शान्त और शरीरको नम्र करके गमन करन के साथ जानेपर उनके पीछे अपने शरीर प्रमाण भूमिभागका अन्तराल देकर गमन करें ॥१२१॥ विशेषार्थ-पं० आशाधरने अपनी टीकामें लिखा है कि टीकाकार तो 'पच्छिद अणुसाधणं' के स्थानमें 'पच्छिद संसाहणा' पढ़ते हैं और उसकी व्याख्या करते हैं कि आचार्य उपाध्याय आदिके द्वारा प्रार्थित और मनसे अभिलषितका सम्यक् प्रसाधन करना अर्थात् आज्ञा नहीं देनेपर भी संकेतसे ही जानकर करना । यह टीकाकार कोई दूसरे जान पड़ते हैं क्योंकि विजयोदयामें तो यह पाठ नहीं है। गा०--नीचा स्थान, नीचा गमन, नीच आसन, नोचे सोना, आसनदान, उपकरणदान और अवकाशदान ये उपचार विनयके प्रकार हैं ।।१२२।। टो०--नीचा आसन-गुरुके पीछे इस प्रकार बैठे कि अपने हाथ पैर श्वास आदिसे गुरुको किसी प्रकारकी बाधा न पहुँचे। आगे बैठना हो तो सामनेसे थोड़ा हटकर गुरुके वाम भागमें उद्धतता त्यागकर और अपने मस्तकको थोड़ा नवाकर बैठे। आसन पर गुरुके बैठने पर स्वयं भूमिमें बैठे। नीचे सोना-अर्थात् जो ऊँचा नहीं हो ऐसे देशमें सोना, अथवा गुरुके नाभि प्रमाण मात्र भूभागमें अपना सिर रहे इस प्रकार सोना । अथवा अपने हाथ पैर वगैरहसे गुरु आदिका १. अनुत्तरे देशे आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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