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________________ विजयोदया टीका ६९१ 'इच्चेव समणधम्मो' इत्येवं श्रमणधर्मः दशविधः सगुणदोषः कथितो मया । 'एत्थ तुममप्पमत्तो होहि' अत्र दशविघे धर्मे त्वमप्रमत्तो भवः, समागतस्मृतिकः इति गणिना स्वशिक्षापरिसमाप्तिरादर्शिता ॥१४७१॥ तो खवगवयणकमलं गणिरविणो तेहिं वयणरस्सीहिं । चित्तप्पसायविमलं पफुल्लिदं पीदिमयरंदं ॥१४७२।। 'तो खवगवदणकमलं' ततः शिक्षानन्तरं तस्य क्षपकस्य वदनकमलं प्रफुल्लितं सूरिधर्मरश्मेस्तैर्वचनरश्मिभिः चित्तप्रसादविमलं प्रीतिमकरंदं ॥१४७२॥ वयणकमलेहिं गणिअभिमुहेहिं साबिंभियच्छिपत्तेहिं । सोभइ इह सूरोदयम्मि फुल्लं व णलिणिवणं ॥१४७३॥ 'वयणकमलेहि' वदनकमलैः यतीनां गणिनोऽभिमुखे विस्मिताक्षिपत्रः सा सभा शोभा वहति स्म । सूर्योदये पुष्पितनलिनवनमिव ।।१४७३।। गणिउवएसामयपाणएण पल्हादिदम्मि चित्तम्मि । जाओ य णिव्वदो सो पादणय पाणयं तिसिओ ।।१४७४।। गणिउवएसामयपाणएण' गणिनः उपदेशामृतपानकेन प्रह्लादिते चित्ते जातोऽसो क्षपकः सुष्ठुः निर्वृतः तृषितः पानकं पीत्वेव ॥१४७४॥ तो सो खवओ तं अणुसद्धिं सोऊण जादसंवेगो । उट्टित्ता आयरियं वंदइ विणएण पणदंगो ॥१४७५॥ गा०-इस प्रकार हे क्षपक ! मैंने गुणदोषोंके विवेचनपूर्वक दस प्रकारके श्रमण धर्मका कथन किया। उसको स्मरण करके तम दस प्रकारके धर्ममें अप्रमादी होआ। इस प्रकार निर्यापकाचार्यने अपनी शिक्षाकी समाप्ति सूचित को है ॥१४७१॥ गा०-इस शिक्षाके अनन्तर उस क्षपकका मुखरूपी कमल आचार्यरूपी सूर्यके वचनरूपी किरणोंसे प्रफुल्लित हो जाता है, चित्तके प्रसन्न होनेसे उस मुख कमलकी विरूपता चली जाती है और उसमेंसे प्रीतिरूपी पुष्परस झरने लगता है ॥१४७२।। गा०-जैये सूर्यके उदय होनेपर खिला हुआ कमलोंका वन शोभित होता है उसी प्रकार आचार्यके अभिमुख हुए यतियोंके मुख कमलोंसे, जो आश्चर्ययुक्त नेत्ररूपी पत्रोंसे संयुक्त होते हैं, वह मुनिसभा शोभित होती है ।।१४७३॥ गा०-आचार्यके उपदेशरूपी अमृतका पान करके चित्तके आह्लादयुक्त होनेपर क्षपक वैसा ही सुखी होता है जैसा प्यासा अमृतमय पानक पीकर होता है ।।१४७४।। गा०-उसके पश्चात् वह क्षपक आचार्यका उपदेश सुनकर वैराग्यसे भर जाता है और उठकर अंगोंको नम्र करके विनयपूर्वक आचार्यको वन्दना करता है ।।१४७५।। १. हि बिभि-आ० । सावत्थिदत्थिपत्तेहि-मु। २. सोभदि ससभा सू-मु० । ३. विस्तृताक्षि-मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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