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________________ ६९० भगवती आराधना तं णत्थि जं ण लब्भइ तवसा सम्मं करण पुरिसस्स । अग्गीव तणं जलिओ कम्मतणं डहदि य तवग्गी ॥१४६७।। 'तण्णत्यि' तन्नास्ति यन्न लभ्यते तपसा सम्यक्कृतेन । तपोऽग्निः कर्मतृणं दहति तृणमिवाग्निः प्रज्वलितः ॥१४६७॥ सम्म कदस्स अपरिस्सवस्स ण फलं तवस्स वण्णेदु। कोई अस्थि समत्थो जस्स विजिब्भास यसहस्सं ॥१४६८॥ 'सम्मं कदस्स' सम्यक् कृतस्य निरास्रवस्य तपसः फलं वर्गयितुं न कश्चित्समर्थोऽस्ति जिह्वाशतसहस्रं यद्यप्यस्ति ॥१४६८॥ एवं णादूण तवं महागुणं संजमम्मि ठिच्चाणं । तवसा भावेदव्वा अप्पा णिच्चं पि जुत्तेण ।।१४६९। 'एवं णादण' एवं ज्ञात्वा तपो महोपकारि संयमे स्थित्वा तपसा भावयितव्य आत्मा नित्यमपि उपयुक्तेन ।।१४६९॥ जह गहिदवेयणो वि य अदयाकज्जे णिउज्जदे भिच्चो । तह चेव दमेयव्वों देहो मुणिणा तवगुणेसु ॥१४७०॥ 'जह गहिदवेयणो वि य' यथा गृहीतवेतनोऽपि न दयाकार्ये नियुज्यते भृतकः । तथैव दमितव्यो देहो मुनिना तपोगुणेषु । उत्तरगुणं ॥१४७०॥ इच्चेव समणधम्मो कहिदो मे दसविहो सगुणदोसो । एत्थ तुममप्पमत्तो होहि समण्णागदमदीओ ॥१४७१॥ गा०-संसारमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो सम्यकपसे किये गये तपके द्वारा न प्राप्त होता हो। जैसे प्रज्वलित आग तृणको जलाती है वैसे ही तपरूपी आग कर्मरूपी तृणोंको जलाती है ॥१४६७॥ गा०-सम्यक्रूपसे किये गये और कर्मास्रवसे रहित तपके फलका वर्णन करने में जिसके एक हजार जिह्वा हों वह भी समर्थ नहीं है ॥१४६८।। गा०-इस प्रकार तपको महान् उपकारी जानकर संयममें स्थित संयमीजनोंको नित्य ही उपयोग लगाकर आत्मामें तपकी भावना करनी चाहिए ॥१४६९|| ___ गा०-जैसे वेतन लेनेवाले सेवकको कार्यमें नियुक्त करते समय उसपर दया नहीं की जाती। उसी प्रकार मुनिको अपने शरीरको तपरूप गुणमें लगाना चाहिए। अर्थात् जब शरीर को भोजनरूपी वेतन दिया जाता है उसपर दया न करके उसको तपकी साधनामें लगाना चाहिए ॥१४७०॥ १ दसदी-मु० मूलारा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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