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________________ ४२ भगवती आराधना wwwwwwwwwww - 'जह यथा । 'राजकुलपसूदो' राजपुत्रः । 'जोग्गं' योग्यं । प्रहरणक्रियायाः 'परियम्म' परिकर्म परिकरं। 'णिच्चमवि समरकालात्प्राक् प्रतिदिवसमपि । 'कुणदि' करोति । 'तो' ततः पश्चात् । 'जिदकरणो' क्रियते रूपादिगोचराः विज्ञप्तय एभिरिति करणानि इंद्रियाण्युच्यते क्वचित्करणशब्देन । अन्यत्र क्रियानिष्पत्ती यदतिशयितं साधकं तत्करणमिति साधकतममात्रमुच्यते । क्वचित्तु क्रियासाभान्यवचनः यथा 'डुकृञ् करणे' इति । अत्र क्रियावाची गृहीतः। जितशब्दश्च स्ववशीकरणवृत्तिस्तथा जितभार्यः स्ववशीकृतभार्य इति गम्यते। तेनायमर्थः स्ववशीकृतक्रियः सन् 'जुद्ध' युद्धे समरे 'कम्मसमत्थों' कर्मसमर्थः । कर्मशब्दो ऽनेकार्थः । मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषायैानप्रतिबंधादिसामर्थ्याध्यासितानि क्रियते इति कर्माणि ज्ञानावरणादीनि । कतु: क्रियया व्यापकत्वेन विवक्षितमपि कर्म, यथा 'कर्मणि द्वितीयेति' । तथा क्रियावचनोऽपि अस्ति, कि कर्म करोषि ? कां क्रियामित्यर्थः । इह क्रियावाची गृहीतः । सा चात्र क्रियाऽच्यवनप्रहरणताडनादिका तस्यां 'समत्यो भविस्सदि' समर्थो भविष्यामीति । यो यत्साधयितुवांछति स तत्परिकर्मणि प्राक् प्रयतते, यथा रिपन्निहन्तुकामो हननकर्मोपायं अस्त्रशिक्षां करोति इत्येतावानर्थो दर्शितोऽनया गाथया। इदानीं हेतोः पक्षधर्मयोजनायाह इयसामण्णं साधू वि कुणदि णिच्चमवि जोगपत्यिम्म। तो जिदकरणो मरणे झाणसमत्थो 'भविस्सहदि ।। २१ ॥ गा-जैसे राजपुत्र योग्य शस्त्र प्रहारका अभ्यास युद्धकालसे पहले प्रतिदिन भी करता है। पश्चात् शस्त्र प्रहार रूप क्रियाको अपने अधीन करके युद्ध करने में समर्थ होता है ।।२०।। टी-जिनके द्वारा रूमादि विषयक ज्ञान किया जाता है उन्हें करण कहते हैं । इस प्रकार कहीं 'करण' शब्दसे इन्द्रियाँ कही जाती हैं । अन्यत्र क्रियाकी निष्पत्तिमें जो सर्वाधिक साधक होता है उसे करण कहते हैं। साधकतमको करण कहा है। कहीं पर करण शब्द क्रिया सामान्यका वाचक है जैसे 'डुकृञ् करणे । यहाँ करण शब्द क्रियावाची ग्रहण किया है । और जित' शब्दका अर्थ अपने वशमें करना है । जैसे 'जितभार्य शब्दसे भार्याको अपने वशमें करने वाले पुरुषका बोध होता है। अतः 'जितकरण' का अर्थ क्रियाको अपने वशमें करने वाला होता है। इसी तरह 'कम्मसमत्थो' में कर्म शब्दके अनेक अर्थ हैं। मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषायके द्वारा ज्ञानको रोकने आदिकी शक्तिसे युक्त जो किये जाते हैं उन ज्ञानावरण आदिको कर्म कहते हैं। तथा कर्ताकी क्रियाके द्वारा व्यापक होने रूपसे जो विवक्षित होता है उसे भी कर्म कहते हैं । जैसे 'कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। कर्म शब्द क्रियावाचक भी है। जैसे क्या कर्म करते हो अर्थात् क्या क्रिया करते हो । यहाँ कर्म शब्द क्रियावाची लिया है । यहाँ मारना, प्रहार करना आदि क्रिया ली गई है। जो जिसको साधन करना चाहता है वह पहले उसके परिकर्ममें लगता है जैसे जो शत्रुओं को मारना चाहता है वह मारनेके उपाय अस्त्र शिक्षामें लगता है । इतना अर्थ इस गाथासे बतलाया है ॥२०॥ अब उक्त दृष्टान्तकी योजना प्रकृत चर्चा में करते हैंगा०-इसी प्रकार साधु भी ध्यानका परिकर्म जो (सामण्णं) श्रामण्य है उसे नित्य भी १. भविस्संति-मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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