SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदया टीका १४३ विनयत्यपनयति यत्कर्माशुभं तद्विनयः । तथा चोक्तं-"जह्मा विणेदि. कम्मं अट्ठविहं चाउरंग मोक्खो य” (मूलाचार ७८१) इति । 'पुण' पश्चात् जिनवचनाभ्यासोत्तरकालं । 'पंचविहो' पंचप्रकारः । 'णिहिठठो' निर्दिष्टः । 'णाणसणचरित्ते' विषयलक्षणेयं सप्तमी । ज्ञानदर्शनचारित्रविषयः ।। 'त तपसि विनयश्च ॥ 'चउत्थो चतर्थः । 'चरमो' अन्त्यः ।। 'उवयारिओ विणयो' उपचारविनयश्चेति ॥ _ज्ञानविनयभेदानाचष्टे काले विणये उवधाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे । वंजण अत्थ तदुभये विणओ गाणम्मि अविहो ॥११२।। । 'काले स्वाध्यायवाचनकालाविह कालशब्देन गृह्यते । अन्यथा कालमन्तरेण कस्यचिदपि वृत्त्य भावात् कालग्रहणमनर्थकं स्यात् । भवतु नाम कालविशेषः कालशब्दवाच्यः तथ त । भवत नाम कालविशेषः कालशब्दवाच्यः तथापि नासौ विनयो न कर्म व्यपनयतीति. यदि व्यपनयेत्सर्वस्याकर्मवत्ता प्राप्नुयात । 'काले' इति सप्तम्यंतं पदं । तेन वाक्यशेषपुरस्सरोऽयं सूत्रार्थों जायते । साध्याहारत्वात सर्व सूत्राणां । काले अध्ययनमिति । परिवर्जनीयत्वेन निदिष्टं कालं संध्यापर्वदिग्दाहोल्कापातादिकं परिहत्याध्ययनं कर्म विनयति इति विणए इति प्रथमान्तः। विनयः श्रुतश्रतधरमाहात्म्यस्तवनं श्रुतश्रुतधरभक्तिरिति यावत् । गा०—जिनवचनके अभ्यासके पश्चात् विनय पाँच प्रकारकी कही है। ज्ञानविनय दर्शनविनय चारित्रविनय और चतुर्थ तपविनय और अन्तिम उपचार विनय है ।।१११।। टी-'विनयति' जो अशुभ कर्मको दूर करती है वह विनय है। कहा है-यतः आठ प्रकारके कर्मोको दूर करती है अतः विनय है ।।१११॥ ज्ञान विनयके भेदोंको कहते हैं. गा०—काल, विनय, उपधान, बहुमान, 'तथा निह्नव, व्यंजनशुद्धि, अर्थशुद्धि, उभयशुद्धि ये ज्ञानके विषयमें आठ प्रकारकी विनय है ।।११२।। टी०-यहाँ काल शब्दसे स्वाध्यायकाल और वाचन काल ग्रहण किये जाते हैं। अन्यथा कालके बिना किसीका भी अस्तित्व संभव न होनेसे कालका ग्रहण व्यर्थ हो जायेगा। शंका-काल शब्दका वाच्य काल विशेष रहो। किन्तु काल विनय नहीं है क्योंकि काल कर्मको नष्ट नहीं करता । यदि करे तो सब ही जीव कर्म रहित हो जायेंगे ? समाधान--- 'काले' यह सप्तमी विभक्तिसे युक्त पद है अतः इसके साथमें शेष वाक्य जोड़ने से सूत्रार्थ होता है; क्योंकि सभी सूत्र अध्याहार सहित होते हैं । उनमें ऊपरसे कुछ वाक्य जोड़ना होता है । अतः 'कालमें अध्ययन' यह उसका अर्थ होता है । सन्ध्या, पर्व, किसी, दिशामें आग लगना, उल्कापात आदि जो काल छोड़ने योग्य कहे हैं उन कालोंको छोड़कर किया गया अध्ययन कर्मको नष्ट करता है । 'विणए' यह प्रथमान्त शब्द है । श्रुत और श्रुतके धारकोंके माहात्म्यका स्तवन अर्थात् श्रुत और श्रुतके धारकोंकी भक्ति विनय है। १ 'काले....."प्राप्तुयात्' इत्येतद् प्रतिषु उत्थानिकारूपेण लिखितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy