________________
३८
भगवती आराधना है। इसका नाम आराधना कथाप्रबन्ध है। इसके रचयिता प्रभाचन्द्र पण्डित हैं जो जयसिंह देवके राज्यमें धाराके निवासी थे। दूसरे भागके प्रारम्भमें मंगल तक नहीं है । तथा कुछ कथाओंमें पुनरुक्ति है। प्रथम भागकी कथा १, २, ४ पात्रकेसरी अकलंक और समन्तभद्रसे सम्बद्ध हैं। हरिषेणके कथाकोशमें ये कथाएँ नहीं है।
ब्र० नेमिदत्त स्पष्टरूपमें स्वीकार करते हैं कि उनका संस्कृतपद्योंमें रचित आराधना कथाकोश प्रभाचन्द्रके गद्यकथाकोशका ऋणी है। किन्तु फिर भी दोनोंमें स्पष्ट अन्तर है। प्रभाचन्द्रमें कथा संख्या १२२ है और नेमिदत्तमें १४४ । कुछ कथाएँ कम है और कुछ कथाएँ ऐसी भी है जो प्रभाचन्द्रमें नहीं हैं।
___ कन्नड़के वड्डाराधनेमें केवल १९ कथाएँ हैं जो भ० आ० की गाथा १५३४-१५५२ तक से सम्बद्ध है। प्रत्येक कथाके प्रारम्भमें गाथा दी है और कन्नड़में उसका व्याख्यान भी है। ये उन्नीस कथाएँ किश्चित् परिवर्तनके साथ हरिषेणके कथाकोशमें १२६ से १४४ नम्बरमें पाई जाती हैं और अन्य कथाकोशोंकी अपेक्षा उसके अधिक निकट हैं। किन्तु वड्डाराधनामें उनका विस्तार अधिक है।
हरिषेणका कथाकोश तो सबसे बड़ा और प्राचीन होनेसे अनेक दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है। इसमें १५७ कथाएँ हैं। किन्तु भगवती आराधनाकी कोई गाथा या उसका अंश इसमें नहीं है। केवल प्रशस्तिके श्लोक ८ में 'आराधनोद्धृत' पद आता है।
हरिषेण कथाकोशमें कथाओंका शीर्षक उस व्यक्तिके नामसे दिया है जिसकी कथा है। किन्तु प्रभाचन्द्रके कथाकोशमें शीर्षक भ० आ० की गाथाके आधारपर दिया गया है। दोनोंके कथानकोंमें भी अन्तर है। '८. भगवती आराधनाको टोकाएं
यहाँ हम भगवती आराधनाकी टोकाओंका परिचय देते हुए सबसे प्रथम विजयोदया टीकाके सम्बन्धमें प्रकाश डालेंगे जो इस संस्करणमें मुद्रित है।
१. विजयोदया टोका-विजयोदया टोकाके अध्ययनसे यह स्पष्ट होता है कि उसके टीकाकार अपराजित सूरिका अध्ययन बहुत विस्तीर्ण तथा गम्भीर था । और उन्होंने आगम साहित्यका भी गहरा मंथन किया था। उनकी इस टीकामें प्राकृत और संस्कृतके उद्धरणोंकी बहुलता है। किन्तु उनमेंसे अधिकांशके स्थानका पता नहीं चलता। उनकी लेखन शैली सुलझी हुई है। जो कुछ लिखते हैं खूब खोलकर लिखते हैं। अपनी टीकामें उन्होंने गाथाके पदोंका शब्दार्थ तो दिया ही है किन्तु यथास्थान उससे सम्बद्ध विवेचन देकर विषयको स्पष्ट ही नहीं किया, किन्तु बहुत सी आवश्यक नवीन जानकारी भी दी है। उदाहरणके लिये
१. गा० २५ में ग्रन्थकारने सतरह मरण कहे हैं। उसकी टीकामें टीकाकारने सतरह मरणोंके नाम और स्वरूप दिये हैं।
२. गा० ४६ में ग्रन्थकारने संक्षेपसे दर्शनविनयको कहा है। टीकाकारने दर्शनविनयके प्रत्येक अंगको स्पष्ट किया है। उसमें भक्ति और पूजाके साथ एक शब्द है 'वर्णजनन', उसका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org