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भगवती आराधना अशुद्धिश्च कर्मणा सह वृत्तिः, तत्रासती शुद्धिः कथमादय॑ते कौशापगममात्रतः ? शुद्धिर्वा या मुक्तिः सा कस्य न विद्यते ? फलं दत्वा प्रयान्त्यात्मनः कर्मपदगलस्कन्धाः । यच्चोक्तं यदा तु कालभेदेन वैधधमाशंक्यते बंधनशातनयोरेकसमयत्वात् इति ततो द्वितीयो दृष्टान्तः । रज्जुवेष्टननिर्गमनयोरेककालत्वादिति तदप्यसारं । न हि चंद्रमुखी कन्या इत्यत्र एवमाशंका संभवति, सदा संपूर्णमाननं वामलोचनायाः निशानाथस्य कदाचिदेव पूर्णता ततोऽनुमानमिति साधारणधर्ममात्रावलम्बन एवोपमानोपमेय भावः, वैधयं तूपमानोपमेययोरस्ति अन्यथा उपमानमिदं उपमेयमिति भेदो निरास्पदः । अपि च उपमेयस्यातिशयं प्रदर्शयितुमेवोपमानं प्रवृत्तम् ॥ न त्वेकस्योपमानस्यानुनतादृष्टे'तरदुपादीयते (?) इति युक्तम् । संक्षेपस्य प्रकारान्तराख्यानायाह
अहवा चारित्ताराहणाए आराहियं हवइ सव्वं ॥
आराहणाए सेसस्स चारित्ताराहणा भज्जा ॥ ८ ॥ और कर्मोंके साथ रहनेको अशुद्धि कहते हैं। जब वहाँ शुद्धि नहीं है तो कैसे उसे दिखलाते हैं ? और कुछ कर्मोके चले जाने मात्रसे यदि शुद्धि या मुक्ति मानते हो तो ऐसी शुद्धि किस जीवमें नहीं है क्योंकि कर्मपुद्गलस्कन्ध प्रत्येक आत्माको फल देकर जाते रहते हैं। और भी कहा है कि जब कालभेदसे वैधर्म्यकी आशंका की जाती है चूंकि बन्धन और निर्जराका एक ही काल है तब दूसरा दृष्टान्त दिया है; क्योंकि रस्सीके लिपटने और छूटनेका एक ही काल है, यह कथन भी निस्सार है । 'चन्द्रमुखी कन्या' इस दृष्टान्तमें इस प्रकारकी आशंका सम्भव नहीं है कि कन्याका मुख तो सदा सम्पूर्ण रहता है और चन्द्रमा तो पूर्णिमाके ही दिन पूर्ण होता है। उपमान उपमेय भाव दोनोंमें पाये जानेवाले साधारण धर्मोको ही लेकर किया जाता है, दोनोंमें वैधर्म्य तो होता ही है । यदि न होता तो उनमें यह उपमान और यह उपमेय ऐसा भेद ही न होता। तथा उपमेयकी विशेषता दिखलानेके लिए ही उपमान होता है। अकेले उपमानके लिये उपमेय नहीं होता ॥७॥
भावार्थ-मिथ्यादृष्टिकी तो बात ही क्या, तत्त्वोंका श्रद्धानी सम्यग्दृष्टी भी यदि अविरत है, हिंसादि विषयोंमें प्रवृत्त रहता है, उसका तप करना महान् उपकारक नहीं है। अर्थात् वह कर्मोको सर्वथा नष्ट नहीं कर सकता। जो संयमसे हीन होता है उसके संवरके अभावमें प्रतिसमय नये-नये कर्मोंका बन्ध होता रहता.है । अतः उसकी मुक्ति नहीं हो सकती। यह कथन चारित्रकी प्रधानता दिखलानेके लिये है। जैसे तपके प्राधान्यकी विवक्षामें कहा है-तपसे ही मुक्ति होती है अतः तप करना चाहिए। असंयमीका तप हाथीके स्नानकी तरह होता है। जैसे हाथी स्नान करके शरीरके भीग जानेसे अपनी सूंड द्वारा अपने ऊपर डाली गई बहुत-सी धूल ग्रहण कर लेता है। उसी तरह असंयमी तपके द्वारा कुछ कर्मोंकी निर्जरा करके भोजनादिकी लम्पटतावश बहुत अधिक कर्मबन्ध करता है। दूसरा दृष्टान्त है मन्थनचर्मपालिका । हस्तिस्नान दृष्टान्तके द्वारा तो यह बतलाया है कि जितनी निर्जरा करता है उससे बहुत अधिक कर्मबन्ध करता है और दूसरे दृष्टान्तसे बतलाया है कि बन्धके साथ-साथ होनेवाली निर्जरासे मुक्ति नहीं हो सकती ।। ७ ॥
संक्षेपसे आराधनाके अन्य प्रकार कहते है१. दृष्टेरित-मु०।
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