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विजयोदया टीका
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संवरे प्रतिसमयमुपचीयमानकर्मसंहतेः का मुक्तिः ? ननु सत्यपि संयमे विना निर्जरां न निवृत्तिरिति । शक्यमेवमप्यभिधातु 'सम्मादिहिस्स वि अकदतवो भावणाविसेसस्स न चारित्तं महागुणं होदित्ति'। सत्यमेवमेतत् चारित्रप्राधान्यविवक्षापरा इयं चोदना । असिश्च्छिनत्तीत्यत्र छेत्तारमन्तरेण नासिनैव संपद्यते छिदा, तथा तदीयतैक्षण्यगौरवकाठिन्यातिशयनिरूपणवांछायां तस्यैव स्वातंत्र्यं निगद्यते । एवमिहापीति न दोषः । कुतः ? यस्मात् 'होदि खु हत्थिण्हाणं' होदि भवति । 'खु' शब्द एवकारार्थः । स हत्थिण्हाणमित्यनेन संबंधनीयः । हत्थिण्हाणमेवेति । यथा हस्ती स्नातोऽपि न नैर्मल्यं वहति पुनरपि करावजितपांसुपटलमलिनतया' तद्वत्तपसा निज र्णेऽपि कर्माशे बहुतरादानं असंयममुखेनेति मन्यते । दृष्टान्तान्तरमाचष्टे-चुदच्चुदकम्म मन्थनचर्मपालिकेव तद्वत्संयमहीनं तपः । दृष्टान्तद्वयोपन्यासः किमर्थम् इति चेत् । अपगताद्बहुतरोपादानं कर्मणोऽसंयमनिमित्तस्येति प्रदर्शनाय हस्तिस्नानोपन्यासः । आर्द्रतनुतया बहुतरमुपादत्ते रजः । बन्धरहिता निर्जरा स्वास्थ्यं प्रापयति नेतरा बन्धसहभाविनीति । किमिव मन्थनचर्मपालिकेव । सा हि बन्धसहितां मुक्ति वर्तयति । अत्रान्ये व्याचक्षते-कालभेदमनपेक्ष्य शुद्धिमशद्धि च दर्शयता प्रथम उपात्तः । तदयुक्तं सकलकर्मापायो हि शुद्धिः,
अभावमें प्रति समय बन्धनेवाले कर्मोका संचय होते हुए मुक्तिकी बात ही क्या है ?
शङ्का-संयमके होनेपर भी निर्जराके विना मुक्ति नहीं होती। अतः ऐसा भी कहा जा सकता है कि जिसने तपकी भावना नहीं की उस सम्यग्दृष्टीका चारित्र महान् उपकारी नहीं है ?
समाधान आपका कथन यथार्थ हो है। यह कथन चारित्रकी प्रधानताकी विवक्षाको लिये हुए है। जैसे 'तलवार काटती है' ऐसा कहा जाता है। किन्तु काटनेवाले व्यक्तिके विना केवल अकेली तलवार नहीं काटती। परन्तु तलवारकी तीक्ष्णता, गौरव और कठोरता आदि अतिशयोंको बतलानेकी इच्छा होनेपर 'तलवार काटती है' इस प्रकार तलवारके स्वातन्त्र्यको कहा जाता है । इसी तरह यहाँ भी है अतः कोई दोष नहीं है।
उक्त कथनके समर्थन में ग्रन्थकार दृष्टान्त देते हैं-जैसे हाथी स्नान करके भी निर्मल नहीं होता, वह अपनी सूंडके द्वारा धूल उठाकर अपनेपर डालता है। उसी तरह तपके द्वारा कुछ कर्मोंकी निर्जरा होनेपर भी असंयमके द्वारा उससे अधिक कर्मोका बन्ध होता रहता है। ऐसा माना गया है।
दूसरा दृष्टान्त देते हैं-मन्थनचर्मपालिकाकी तरह संयमहीन तप होता है ।
शङ्का-दो दृष्टान्त किस लिये दिये हैं ? __ समाधान-तपके द्वारा जितनी कर्मनिर्जरा होती है, असंयमके निमित्तसे उससे बहुत अधिक कर्मोका बन्ध होता है, यह बतलानेके लिए हस्तिस्नानका दृष्टान्त दिया है क्योंकि स्नानके पश्चात् शरीरके गीले होनेसे बहुत-सी धूल उसपर जम जाती है । तथा बन्धरहित निर्जरा मोक्ष प्राप्त कराती है, बन्धके साथ होनेवाली निर्जरा नहीं। जैसे मन्थनचर्मपालिका। वह तो बन्धसहित मुक्ति देती है अर्थात् मथानी चलाते समय एक ओरसे रस्सी छूटती जाती है किन्तु साथ ही दूसरी ओरसे लिपटती जाती है ।
दूसरे टीकाकार कहते हैं-समयभेदकी अपेक्षा न करके शुद्धि और अशुद्धिको दिखलानेके लिये प्रथम दृष्टान्त दिया है । किन्तु ऐसा कहना अयुक्त है क्योंकि समस्त कर्मोके विनाशको शुद्धि
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