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________________ भगवती आराधना ननु तपस्यायत्तनिर्जरानुक्रमेण निर्जरामुपगच्छन्ति सन्ति कर्माणि यदा निःशेषाण्यपगतानि भवन्ति तदा स्वास्थ्यरूपं निर्बाणमपजायते ततो निर्वाणस्य कारणं निर्जरव, तस्याश्च संपादकं तपस्ततो यक्तं दर्शनाराधना तप आराधना चेति द्विविधा आराधनेति गदितु इत्यारेकायां, तपो निर्जरां मुक्तेरनुगुणां करोति सति चारित्रे संवरकारिणि नान्यथेति प्रदर्शयति 'सम्मादिट्ठिस्स वि' इत्यादिना सम्मादिठिठस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि । होदि हु हत्थिण्हाणं 'चुंदच्चुदकम्म तं तस्स ।।७।। • 'सम्मादिठिस्सवि' तत्वार्थश्रद्धानवतोऽपि । 'अविरदस्स' असंयतस्य । 'न तवो' तपः । 'महागुणो' गुणशब्दोऽनेकार्थवृत्तिः । रूपादयो गुणशब्देनोच्यन्ते क्वचिद्यथा-'रूपरसगन्धस्पर्शसंख्यापरिमाणानि, पृथक्त्वं, संयोगविभागो,, परत्वापरत्वबुद्धयः, सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नादयः क्रियावद्गुणसमवायिकारणं द्रव्यं' -इत्यस्मिन्सूत्र गृहीताः ॥ 'गुणभूता वयमत्र नगरे' इति । अत्राप्रधानवाचीयस्य गुणस्य भावादिति विशेषेण वर्तते । 'गुणोऽनेन कृत' इत्यत्र उपकारार्थे वृत्तिः । इह उपकारे वर्तमानो गृह्यते। महागुणः उपकारोऽस्येति महागुणं । 'होदि' भवति । क्रिया चैव हि भाव्यते निषेव्यते वा इति वचनात् । 'न' तु भवनक्रियया संबध्यते, तपो न भवति महोपकारमिति । एतदुक्तं भवति कर्मनिमूलनं कर्तुमसमथं तपः सम्यग्दृष्टेरप्यसंयतस्य । पुनरितरस्य असति उन्होंने जो बाह्य तपके बिना मुक्ति प्राप्तिका निर्देश किया है उसका अभिप्राय इतना ही है कि जिन दीक्षा धारण करनेके पश्चात् ही अन्तर्मुहुर्तमें क्षपक श्रेणि पर आरोहण करके मुक्त हुए। अतः उन्हें अनशन आदि बाह्य तप नहीं करना पड़ा । अभ्यन्तर तप तो रहा ही ॥ ६ ॥ निर्जरा तपके अधीन है। जब क्रमसे निर्जराको प्राप्त होते होते सब कर्म चले जाते हैं तब 'स्व' में स्थिति रूप निर्वाणकी प्राप्ति होती है । अतः निर्वाणका कारण निर्जरा ही है और निर्जराका सम्पादक है तप । इसलिये दर्शनाराधना और तप आराधना ये दो आराधना कहना युक्त है। इस आशंकाके उत्तरमें आचार्य 'संवरको करने वाले चारित्रके होने पर ही तप मुक्तिके अनुकूल निर्जरा करता है, अन्यथा नहीं'-- ऐसा कथन करते हैं गा०–सम्यग्दृष्टी भी जो अविरत है अर्थात् अविरत सम्यग्दष्टीका तप महान् उपकारी नहीं होता। उसका वह तप हाथीके स्नानकी और मंथनचर्मपालिका मथानीकी रस्सीकी तरह होता है ।। ७ ॥ टी०-तत्त्वार्थ श्रद्धानवान् भी, असंयमीका तप महागुणवाला नहीं होता। गुण शब्दके अनेक अर्थ हैं। कहीं गुण शब्दसे रूपादि कहे जाते हैं जैसे वैशेषिक दर्शनके सूत्रमें गुण शब्दसे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, आदि लिये गये हैं। हम इस नगरमें गुणभूत हैं' इस वाक्यमें गुणशब्दका अर्थ गौण या अप्रधान है। 'इनने गुण किया' इस वाक्यमें 'गुण' का अर्थ उपकार है। यहाँ भी गुणशब्दका अर्थ उपकार है। अतः महान् है 'गुण' अर्थात् उपकार इसका। गाथामें 'होदि' क्रिया है उसका अर्थ होता है'। उसके साथ 'ण' का सम्बन्ध लगाना चाहिये। तब अर्थ होता है-तप महान् उपकारी नहीं है। पूरे वाक्यका अभिप्राय है-असंयमी सम्यग्दृष्टीका भी तप कर्मोको जड़से नष्ट करने में असमर्थ है। फिर जो सम्यग्दृष्टी नहीं है, उनके संवरके १. चदं संछेदक-ज, दगंव तं-मु०, ये तु चुंदच्छिदकम्म इति पठन्ति-मूलारा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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