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विजयोदया टीका
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तेनोक्तं इह तदेवोक्तं किमिति पुनरुपन्यस्यते ? तत्कथमिति वा युक्तं सूत्रे चारित्रसिद्धावितरसिद्धिक्रमस्यानुपन्यासात् ॥ प्रतिज्ञामात्राद्विप्रतिपन्नो न प्रतिपद्यते इति युक्तिप्रश्नोऽयं स कथं युज्यते व्याख्यान्तरसूचिते प्रतिविधाने । यच्च व्याख्यानं "त्रयोदशात्मके चारित्रे सर्वथा प्रयतनं संयमः । स च बाह्यतपः संस्कारिताभ्यन्तरतपसा विना न संभवति । तदुपकृतात्मकत्वात्संयमस्वरूपस्येति" तदघटमानं । न हि प्रयतनं संयमशब्दस्यार्थः । क्वचिदपि संयमशब्दस्य तत्राप्रयक्तत्वात । प्रयोगावृत्तिसमधिगम्यो हि शब्दार्थः । 'विदिया य हवे चरित्तंहि' इति सूत्रे चारित्रशब्देन सामान्यवाचिना सकलचारित्रमिति किमर्थं विशेषेणोच्यते? सर्वस्य हि सामायिकादेश्चारित्रस्याराधना चारित्राराधना भवति । यथाहि-'पंडिदपडिदमरणं खीणकसाया मरंति केवलिणो'. इत्यन्ये यथाख्यातचारित्राराधनामपि वक्ष्यति । बाह्यतपःसंस्कारिताभ्यन्तरतपसा इति वा असंबद्धं । अन्तरेणापि बांद्यतपोऽनुष्ठानं अंतर्मुहूर्तमात्रेणाधिगतरत्नत्रयाणां भद्दणराजप्रभृतीनां पुरुदेवस्य भगवतः शिष्याणां निर्वाणगमनमागमे प्रतीतमेव ।।
इन शब्दोंका यह अर्थ नहीं है । शब्दके द्वारा जिसकी प्रतीति हो, उसे उनका कथन कहना युक्त है । तथा, यदि उन्होंने ऐसा कहा है तो पुनः उसीका उपन्यास वह क्यों करते और वह कैसे यक्त हो सकता है ? क्योंकि गाथामें चारित्रकी सिद्धिमें अन्यकी सिद्धिके क्रमका कथन नहीं है। 'प्रतिज्ञामात्रसे विवादग्रस्त व्यक्ति नहीं समझता' इस प्रकारका युक्तिप्रश्न अन्य व्याख्याओंके द्वारा सचित प्रतिविधानमें कैसे युक्त हो सकता है ? ।
एक अन्य व्याख्या में कहा है-'तेरह प्रकारके चारित्रमें सर्वथा प्रयत्नशील होनेका नाम संयम है। वह संयम बाह्यतपके द्वारा संस्कार किये गये अभ्यन्तर तपके बिना नहीं होता अर्थात् बाह्य और अभ्यन्तर तपके होनेपर ही संयम होता है; क्योंकि संयमका स्वरूप तपके द्वारा उपकृत होता है' किन्तु उक्त कथन घटित नहीं होता; क्योंकि संयम शब्दका अर्थ प्रयत्नशील होना नहीं है । किसी ग्रन्थमें संयम शब्दका प्रयोग इस अर्थमें नहीं हुआ है । शब्दका अर्थ उसके बारंबार प्रयोगसे जाना जाता है।
___ 'विदिया य हवे चरित्तम्मि' इस गाथा सूत्रमें आगत चारित्र शब्द सामान्य चारित्रका वाचक है, उसका सकल चारित्र रूप विशेष अर्थ आप कैसे कहते हैं ? समस्त सामायिक आदि चारित्रकी आराधना चारित्राराधना है । आगे कहेंगे कि क्षीणकपाय और फेकलीके पण्डित पण्डित मरण होता है। अतः यथाख्यातचारित्राराधना भी उसमें आती है। तथा बाह्य तपके द्वारा संस्कारित अभ्यन्तर तपसे' इत्यादि कथन भी असम्बद्ध है क्योंकि बाह्य तपके अनुष्ठानके बिना भी अन्तर्मुहूर्तमात्रमें रत्नत्रयको प्राप्त करके, भगवान् ऋषभदेवके शिष्य भद्दणराज वगैरहका निर्वाण गमन आगममें प्रसिद्ध ही है।
भावार्थ-संयम शब्दमें 'सं' का अर्थ है समन्त अर्थात् मन वचन कायके द्वारा पापको लाने वाली क्रियाओंका 'यमन'-त्याग संयम है। अतः संयमका अर्थ चारित्र है । वह बाह्य अनशन आदि और अभ्यन्तर प्रायश्चित्तादिके भेदसे बारह प्रकारका है। उस तपकी आराधना चारित्राराधनामें आती है क्योंकि उसमें भी अविरति, प्रमाद और कषायका त्याग होता है । किन्तु तप आराधनामें चारित्राराधना नहीं आती; क्योंकि तपस्वी असंयमका त्यागी होता भी है और नहीं भी होता । भोजनादिका त्याग करने वाले भी कोई-कोई असंयमी देखे जाते हैं । इस ग्रन्थ पर अन्य भी टीकाएँ थीं। उन्हींके मतका निराकरण ऊपर टीकाकार अपराजित सूरिने किया है।
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