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भगवतो आराधना
चित्तव्याकुलतापराजयो विविक्तशयनासनम् । स्वकृतापराधगृहनत्यजनं आलोचना । स्वकृतादशुभयोगात्प्रतिनिवृत्तिः प्रतिक्रमणं । तदुभयोज्झनं उभयं । येन यत्र वा अशुभोपयोगोऽभत्तन्निराक्रिया, ततोऽपगमनं विवेकः । देहे ममत्वनिरासः कायोत्सर्ग: । तपोऽनशनादिकं यथा भवति चारित्रं तथोक्तमेव । असंयमजुगुप्सार्थमेव प्रव्रज्याहापनं छेदः । मूलं पुनश्चारित्रादानम् । ज्ञानदर्शनचारित्रतपसामतीचारा अशुभक्रियाः । तासामपोहनं विनयः । चारित्रस्य कारणानुमननं वैयावृत्त्यं ।।
एवं स्वाध्यायो ध्यानं च अविरतिप्रमादकषायत्यजनरूपतया। इत्थं चारित्राराधनयोक्तया प्रत्येतु शक्या तपस आराधना । अशनादिकं यदि नाम त्यक्तं न नियोगतोऽविरतिः प्रत्याख्याता भवति । कृताशन
श्यत असयता इत्येतच्चेतसि कृत्वाह-आराधतेणेति 'आराधतेण' आराधयता । 'तवं' तपः। 'चारित्तं' चारित्रं सकलविरतियोगः । 'होदि' भवति । 'भयणिज्ज' भजनोयम । तपस्यद्यतः करोति वा न वा असंयमपरिहारं इति यावत । अत्रान्येषां व्याख्या-चारित्राराधनायां तपस आराधनायाः सिद्धिरवश्यंभाविनीत्युक्तं तत्कथं? तदिदं संयममाराधतेणेत्यादि एवं सत्रोपोद्धातः कृतः स नोपपद्यते । चारित्राराधनाया तपस आराधनायाः सिद्धिर्भवतीति नोक्तं क्वचित्सूत्रकारेण तत्किमच्येत उक्तमिति ? 'विदियाय हवं चरित्तहि इति वचनेनोक्तमिति चेन्न अशब्दार्थत्वात् । शब्देन हि यत्प्रतीयते तदुक्तमिति युक्त वक्तु । अपि च भवतु
कहते हैं । चित्तको व्याकुलताके दूर करनेको विविक्त शयनासन तप कहते हैं। अपने द्वारा किया गये अपराधको छिपानेका त्याग करना आलोचना है। अपने द्वारा किये गये अशुभ मन वचन कायके व्यापारका प्रतीकार करना प्रतिक्रमण है। इन दोनोंको ही करना उभय है। जिसके द्वारा अथवा जिस स्थान पर अशुभ उपयोग हुआ हो उनसे अलग होना विवेक है। शरीरमें ममत्वका त्याग कायोत्सर्ग है । अनशनादि तप जिस प्रकार चारित्र हैं ऊपर कहा ही है।
असंयमके प्रति ग्लानि प्रकट करनेके लिये दीक्षाके कालको कम कर देना छेद प्रायश्चित्त है । और पुनः चारित्र ग्रहण करना मूल प्रायश्चित्त है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपके अतीचारोंको अशुभ क्रिया कहते हैं उनका त्याग अर्थात् ज्ञानादिमें दोष न लगाना विनय है। चारित्रके कारणोंमें अनुमति देना वैयावृत्य है। इसी प्रकार स्वाध्याय और ध्यान भी चारित्र है क्योंकि ये सब अविरति, प्रमाद और कषायके त्यागरूप हैं ।
इस प्रकार चारित्राराधनाके कथनसे तप आराधनाको जाना जा सकता है। यदि भोजन आदिका त्याग किया तो अविरतिका त्याग नियमसे नहीं किया । 'भोजनका त्याग करने वाले भी असंयमी देखे जाते हैं। यह बात चित्तमें रखकर आचार्य कहते हैं
तपकी आराधना करने वालेके द्वारा, सकलविरतिसे सम्बन्धरूप चारित्र, 'भयणिज्ज' भजनीय है । अर्थात् तपमें जो संलग्न है वह असंयमका त्याग करता भी है और नहीं भी करता।
अन्य टीकाकार इसकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं-चारित्रकी आराधनामें तपकी आराधनाकी सिद्धि अवश्य होती है ऐसा जो कहा वह कैसे ? उसीके समाधानके लिये 'संजममाराधतेण' इत्यादि कहा है। ऐसा वे इस गाथाकी उत्थानिकामें कहते हैं। उनका कथन ठीक नहीं हैक्योंकि चारित्रकी आराधना करनेपर तप आराधनाकी सिद्धि होती है ऐसा ग्रन्थकारने कहीं भी नहीं कहा । तब कैसे कहते हैं कि ग्रन्थकारने ऐसा कहा है ? यदि कहोगे कि
_ 'विदियाय हवे चरित्तम्मि' इस कथनके द्वारा कहा है ? तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि
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