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________________ १९ विजयोदया टीका अज्ञानलक्षणमित्युभयोरपि प्रतिवचनमिति विकल्प्यते । एवमपि 'तम्हा न मिच्छदिठिठ' इति सूत्रे मिथ्यादृष्टेनिस्याराधकत्वाभावमेव सूत्रकार उपसंहरति । तत्परित्यज्यासू त्रितमुपादेयमिति केयं स्वतंत्रता ? चारित्राराधना कथ्यते । चतुर्थ्या आराधनायाः प्रतिपत्तिक्रमं दर्शयन्नाह संजममाराहंतेण तओ आराहिओ हवे णियमा । आराहतेण तवं चारित्तं होइ भयणिज्जं ॥ ६ ॥ 'संजममाराहंतेण' संयम इत्यनेन शब्देन इह चारित्रमित्युच्यते। कर्मादाननिमित्तक्रियाम्य उपरमः संयमः । स च चारित्रम् । यथा चाभ्यधायि-'कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमो ज्ञानवतश्चारित्रमिति"। 'संजम' चारियं, 'आराधतेण' आराधयता । 'तवो' तपः । 'आराधियो' आराधितं । 'हवे' भवेत । "णियमा' अवश्यमेव । कथं ? इह अनशनं नाम अशनत्यागः । स च त्रिप्रकारः । मनसा भुले, भोजयामि, भोजने व्यापृतस्यानुमतिं करोमि । भुञ्ज, भुक्ष्व, पचनं कुनिति वचसा । तथा चतुर्विधस्याहारस्याभिसंधिपूर्वकं कायेनादानं, हस्तसंज्ञायाः प्रवर्तनं अनुमतिसूचनं कायेन । एतासां मनोवाक्कायक्रियाणां कर्मोपादानकारणानां त्यागोऽनशनं चारित्रमेव । योगत्रयेण तृप्तिकारिण्यां भुजिक्रियायां दर्पवाहिन्यां निराकृतिः अवमोदर्यम् । तथा आहारसंज्ञाय जयो वत्तिपरिसंख्यानम । रसगोचरगाद्धर्यत्यजनं त्रिधा रसपरित्यागः । कायसखाभिलाषत्यजनं कायक्लेशः । यदि इसे मान भी लिया जाये तब भी जो गाथामें 'तम्हा वा मिच्छादिट्ठी' इत्यादि कहा है वह बतलाता है कि गाथा सूत्रके कर्ता आचार्य 'मिथ्यादृष्टि ज्ञानका आराधक नहीं होता' यही उपसंहार करते हैं । अतः उसे छोड़कर जो बात गाथा सूत्रमें नहीं कही, उसे ग्रहण करना, यह कैसी स्वतन्त्रता है ॥५॥ आगे चारित्राराधनाको कहते हैं। उसके साथ चौथी तप आराधनाकी प्रतिपत्तिका क्रम दिखलाते हैं गा०-संयमकी आराधना करने वालेके द्वारा तप नियमसे आराधित होता है। किन्तु तपकी आराधना करने वालेके द्वारा चारित्र भजनीय होता है ॥ ६ ॥ टी०-'संजममाराहतेण' यहाँ आगत संयम शब्दसे चारित्रका ग्रहण होता है। कर्मोंके ग्रहण में निमित्त क्रियाओंके त्यागको संयम कहते हैं और वह चारित्र है। कहा भी है-ज्ञानी पुरुषके कर्मोंके ग्रहणमें निमित्त क्रियाओंके त्यागको चारित्र कहते हैं। चारित्रकी आराधना करने वालेके द्वारा तप नियमसे आराधित कैसे होता है यह बतलाते हैं-अनशन नामक तपमें अनशन नाम भोजनके त्यागका है। उसके तीन प्रकार हैं-मनसे भोजन करता हूँ, भोजन कराता हूँ, भोजनमें लगे हुएको अनुमति करता हूँ। मैं भोजन करता हूँ, तुम भोजन करो, भोजन बनाओ इस प्रकार वचनसे कहना। तथा चार प्रकारके आहारका संकल्पपूर्वक कायसे ग्रहण करना, हाथसे संकेत करना, कायसे अनुमतिका सूचन करना। ये जो मन वचन कायकी क्रियाएँ हैं जो कर्मोके ग्रहणमें कारण हैं उनका त्याग अनशन है जो चारित्र ही है। - तृप्ति करने वाले तथा मद पैदा करने वाले खानपानका मन वचन कायसे त्याग अवमौदर्य है। आहार संज्ञाके जीतनेको वृत्तिपरिसंख्यान तप कहते हैं। मन वचन कायसे रसविषयक लम्पटताके त्यागको रसपरित्याग तप कहते हैं । शारीरिक सुखकी इच्छाके त्यागको कायक्लेश तप १. सर्वां० सि० १११। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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