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________________ विजयोदया टीका ३५७ गमनं, छिन्नाध्वगमनं, ततो रक्षणीयागमनं तस्या? यदा क्रान्तः । उन्मार्गेण वा गमनं । अन्तःपुरप्रवेशः । अननुज्ञातगहभूमिगमनं । इत्यादिना क्षेत्रप्रतिसेवा । आवश्यककालादन्यस्मिन्काले आवश्यककरणं वर्षावग्रहातिक्रमः इत्यादिका कालप्रतिसेवना । दर्पः, प्रमादः, अनाभोगः, भयं, प्रदोपः इत्यादिकेषु परिणामेषु प्रवृत्तिर्भावसेवा । एवमपराधनिदानं ज्ञात्वा अथवा प्रायश्चित्तं प्रकृतेर्द्रव्यादिकं ज्ञात्वा रसबहुलं, धान्यबहुलं, शाकबहुलं . यवागूशाकमात्र वा पानकमेव वेत्याहारे द्रव्यपरिज्ञानं । प्रायश्चित्तमाचरतः अनूपजांगलसाधारणक्षेत्रपरिज्ञानं । धर्मशीतसाधारणकालज्ञानं । क्षमामार्दवार्जवसंतोषकादिकं भावं क्रोधादिकं वा । करण परिणाम प्रायश्चित्तक्रियायां परिणामं । सहवासार्थ किमयं प्रायश्चित्ते प्रवृत्तः उत यशोथ, लाभार्थमुत कर्मनिर्जराथं इति । 'उच्छाह' उत्साहं । 'संघदणं' शरीरबलं । 'परियायं' प्रव्रज्याकालं । 'आगम' अल्पं श्रुतमस्य बहु वेति । पुरिसं . 'जादतरोभयातरंगो इत्येवमादिकं विकल्पं च ज्ञात्वा ॥४५२॥ मोत्तूण रागदोसे ववहारं पट्टवेइ सो तस्स । ववहारकरणकुसलो जिणवयणविसारदो धीरो ॥४५३।। 'मोत्तूण' त्यक्त्वा । 'रागदोसे' राग द्वेषं च मध्यस्थः सन्निति यावत् । 'ववहारं पढदि सो तस्स' प्रायश्चित्तं ददाति स सूरिस्तस्मै । 'ववहारकरणकुसलो' प्रायश्चित्तदान कुशलः । 'जिणवयणविसारदो' जिनप्रणीते आगमे निपुणः । धीरो धृतिमान् ॥४५३॥ सेवना है । अथवा वर्जित क्षेत्रमें जाना, विरुद्ध राज्यमें जाना, कटे-टूटे मार्गसे जाना, ऐसे मार्गका आधा भाग जानेपर वहाँसे अरक्षणीय मानकर लौट आना अथवा उन्मार्गसे जाना, अन्तःपुरमें प्रवेश करना, जहाँ जानेकी आज्ञा नहीं है ऐसी गृहभूमिमें जाना, इत्यादिके द्वारा क्षेत्र प्रतिसेवना करना । आवश्यककाल में छह आवश्यक न करके अन्यकालमें करना, वर्षाकालके नियमका उल्लंघन करना, इत्यादि काल प्रतिसेवना है। घमण्ड, प्रमाद, अनाभोग, भय, प्रदोष आदि परिणामोंमें प्रवृत्ति भाव सेवा है। इस प्रकार द्रव्य प्रतिसेवना आदिके द्वारा अपराधका निदान जानकर प्रायश्चित्त देना चाहिए। अथवा प्रकृतिके द्रव्यादिको जानकर प्रायश्चित्त देना चाहिए। आहारके सम्बन्धमें ज्ञान होना द्रव्यपरिज्ञान है, रसबहुल-जिसमें रसको अधिकता हो, धान्यबहुल-जिसमें अन्नकी अधिकता हो, शाकबहुल-जिसमें शाकसब्जीकी अधिकता हो, यवागूहलवा लपसी, शाकमात्र अथवा पानकमात्र । आहारके साथ दोषीकी प्रकृति जानकर उसे आहार बतलाना चाहिये । प्रायश्चित्त देते समय क्षेत्रका भी ज्ञान होना चाहिये कि यह क्षेत्र जलवहुल है या जलकी कमी वाला है अथवा साधारण है। कालका भी ज्ञान होना चाहिये कि यह गर्मीके दिन हैं या शीतके दिन हैं अथवा साधारण हैं । क्षमा, मार्दव, आर्जव, सन्तोष आदि भाव हैं। अथवा क्रोधादि भाव है। करण परिणामका अर्थ है प्रायश्चित्त करनेके परिणाम । यह प्रायश्चित्त क्यों लेना चाहता है ? क्या यह साथ रहनेके लिए प्रायश्चित्तमें प्रवृत्त हुआ है अथवा यश, लाभ या कर्मों की निर्जराके लिए प्रवृत्त हुआ है। उसका प्रायश्चित्तमें उत्साह कैसा है, शरीरमें बल कितना है, दीक्षा लिए कितना काल हुआ है, शास्त्रज्ञान थोड़ा है या बहुत है। और वैराग्यमें तत्पर है या नहीं ॥४५२॥ गा०-प्रायश्चित्त देनेमें कुशल और जिन भगवान्के द्वारा कहे गये आगममें निपुण धीर वह आचार्य रागद्वषको त्याग अर्थात् मध्यस्थ होकर उसको प्रायश्चित्त देता है ।।४५३॥ २. जाद जाद तरो-आ० । जातादरो भयान्तरंगो-मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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