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________________ विजयोदया टीका ६८५ सुहसीलदाए अलसनणेण देहपडिबद्धदाए य । जो सची संतीए ण करिज्ज तवं स सत्तिसमं ।।१४४६॥ ___ 'सुहसीलदाए' सुखासक्ततया, अलसतया, देहप्रतिवद्धतया वा यः शक्ती सत्यामपि तपो न करोति शक्तिसमम् ॥१४४६॥ तस्स ण भावो सुद्धो तेण पउना तदो हवदि माया । ण य होइ धम्मसढ्ढा तिव्वा सुहदेहपिक्खाए ॥१४४७।। 'तस्स ण भावो' तस्य परिणामो न शुद्धस्तस्मात्तेन शक्तिसमे तपस्यवर्तमानेन माया प्रयुक्ता भवति । यतस्ततो न भावः शद्धः, धर्म तीवा च श्रद्धा न भवति । केन ? 'सुहदेहपिक्काए' सुखे देहे च प्रेक्षया तत्र आसक्तया बुद्धया हेतुभूतया ॥१४४७॥ अप्पा य वंचिओ तेण होइ विरियं च गृहियं भवदि । सुहसीलदाए जीवो बंधदि हु असादवेदणियं ।।१४४८॥ 'अप्पा य वंचिओ' आत्मा वंचितस्तेन । शक्त्यनुरूपे तपस्यनभ्युद्यतेन शक्तिश्च प्रच्छादिता भवति । सुखासक्ततया जीवो बध्नात्यसातवेदनीयं चानेकभवेषु दुःखावहं ।।१४४८॥ आलस्यदोषमाचष्टे विरियंतरायमलसत्तणेण बंधदि चरित्तमोहं च । देहपडिबद्धदाए साधू सपरिग्गहो होइ ॥१४४९॥ विरियंतरायं वीर्यान्तरायमलसतया बघ्नाति चारित्रमोहनीयं च। शरीरासक्त्या साधुः सपरग्रहो भवति ॥१४४९॥ मायादोसा मायाए हुंति सव्वे वि पुव्वणिट्ठिा । धम्मम्मि 'णिप्पिवासस्स होइ सो दुल्लहो धम्मो ॥१४५०॥ गा०-सुखमें आसक्त होनेसे, आलस्यसे और शरीरमें प्रतिबद्ध होनेसे जो शक्ति होते हुए भी शक्तिके अनुसार तप नहीं करता ।।१४४६।। उसका परिणाम शुद्ध नहीं है। अतः शक्तिके अनुसार तपमें प्रवृत्ति न करने वाला मायाचारी है। तथा सुख और शरीरमें आसक्ति होनेसे उसको धर्ममें तीव्र श्रद्धा नहीं है ॥१४४७॥ ___गा०-जो शक्तिके अनुसार तपमें तत्पर नहीं है वह आत्माको ठगता है और अपनी शक्तिको छिपाता है। तथा सुखमें आसक्त होनेसे असातवेदनीयको बाँधता है जो अनेक भवोंमें दुःखदायी है ॥१४४८॥ आलस्यके दोष कहते हैं गा०-आलसी होनेसे वह वीर्यान्तराय और चारित्र मोहनीय कर्मका बन्ध करता है। तथा शरीर में आसक्ति रखनेसे वह साधु परिग्रही होता है ॥१४४९।। १. णिप्पिहासस्स-आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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