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________________ विजयोदया टीका रीतपौर्वापर्यरचनाविपरीतार्थनिरूपणा गंथार्थयोर्वेपरीत्यं अमी ज्ञानातिचाराः। उक्तातिचारविगमो निरतिचारता चारित्रादीनाम् । मरणकाले रत्नत्रयपरिणामाभावे दोष उक्तः । इदानीमा राधनाफला तिशयख्यापनायाह- दिट्ठा अणादिमिच्छादिट्ठी जम्हा खणेण सिद्धा य ।। आराहया चरित्तस्स तेण आराहणा सारो ॥ १७ ॥ दिट्ठा इत्यादिकं । 'विट्ठा' दृष्टा उपलब्धाः । 'अणादिमिच्छाविट्ठी' अनादिमिथ्यादृष्टयः । भद्दणादया राजपुत्रास्तस्मिन्नेव भवे असतामापन्नाः अत एवानादिमिथ्यादृष्टयः प्रथमजिनपादमूले श्रुतधर्मसाराः समारोपितरत्नत्रयाः । 'जम्हा' यस्मात्क्षणेन क्षणग्रहणं कालस्याल्पत्वोपलक्षणार्थम्, अन्यथा क्षणस्याल्पकालतया कर्मशातनस्य कर्तुमशक्यत्वात्, सकलकर्मशातनपुरस्सर सिद्धत्वमेव न स्यात् । 'सिद्ध य' सिद्धाश्च परिप्राप्ताशेषज्ञानादिस्वभावाः, चशब्देन निरस्तद्रव्यभावकर्मसंहतयश्च, दृष्टा आराधनासंपादकाः । चरित्तस्स चारित्रस्य । चारित्रग्रहणं रत्नत्रयोपलक्षणं । एतेन चारित्राराधनां स्तौति इत्येतद्वयाख्यानं निरस्तं । चारित्राराधनास्तवनस्य नाय प्रस्तावः । आयुरते रत्नत्रमपरिणतिरिह प्रक्रांता स्तोतुं, किमुच्यते चारित्राराधनां स्तौतोति । पद आदिको कम करना या उनको बढ़ाना, आगेको पीछे और पीछेके पाठको आगे करके पौर्वापर्य रचनामें विपरीतता करना, विपरीत अर्थ करना, ग्रन्थ और अर्थमें विपरीतता करना, ये ज्ञानके अतीचार हैं। चारित्र आदिमें कहे अतिचारोंको न लगाना निरतिचारता है। विशेषार्थ-पं० आशाधरने अपने मूलाराधना दर्पणमें लिखा है कि जयनन्दि इस गाथाको पूर्वकी गाथाकी संवादगाथा मानते हैं ॥१६।। मरते समय रत्नत्रयरूप परिणामोंका अभाव होने में दोष कहा। अव आराधनाके फलका अतिशय कहते हैं गा०-क्योंकि रत्नत्रयके आराधक अनादिमिथ्या दृष्टि क्षणमात्रमें अर्थात् अल्पकालमें द्रव्यकर्म भावकर्मसे रहित सिद्ध देखे गये हैं । इसलिये आराधना सार है ।।१७|| टीका-भद्दण आदि राजपुत्रोंने उसी भवमें त्रसपर्याय प्राप्त की थी। अतएव वे अनादिमिथ्यावृष्टि थे । उन्होंने भगवान् ऋषभदेवके पादमूलमें धर्मका सार सुनकर रत्नत्रय धारण किया था और क्षणमात्रमें सिद्धत्व पद प्राप्त किया था। यहाँ 'क्षण' शब्दका ग्रहण कालकी अल्पताके उपलक्षणके लिये किया है। अन्यथा 'क्षण' वहुत छोटा काल है उतने कालमें समस्त कर्मोंका नाश करना अशक्य है और तब समस्त कर्मों के विनाशपूर्वक होनेवाला सिद्धत्व ही प्राप्त नहीं हो सकंगा । जिन्होंने समस्त ज्ञानादिस्वभावको प्राप्त कर लिया है और 'च' शब्दसे द्रव्यकर्म और भावकों के समूहको नष्ट कर दिया है उन्हें सिद्ध कहते हैं। यहाँ चारित्रका ग्रहण रत्नत्रयका उपलक्षण है। __अतः जो 'चारित्राराधनाका स्तवन करते हैं। ऐसा व्याख्यान करते हैं उसका निरास कर दिया है । यह प्रकरण चारित्राराधनाके स्तवनका नहीं है । यहाँ तो आयुके अन्त समयमें रत्नत्रयरूप परिणतिका स्तवन है । तब चारित्राराधनाके स्तवनकी बात क्यों करते हैं। भावार्थ-अनादिकालसे मिथ्यात्वका उदय होनेसे नित्यनिगोदपर्यायमें रहकर भद्र-विवर्द्धन आदि ९२३ भरतचक्रवर्तीके पुत्र हुए और उन्होंने भगवान् ऋषभदेवके पादमूलमें धर्म सुनकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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