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________________ ६०८ भगवती आराधना निष्पत्तिर्भवति, अमीषु मासेषु, अस्य वा कुलस्य वायं भोजनकाल इच्छायाः प्रमाणादिना भिक्षाकालोऽवगन्तव्यः । क्षुदद्य मम तीव्रा मन्दा वेति स्वशरीरव्यवस्था च परीक्षणीया । अयमवग्रहः पूर्वं गृहीतः एवंभूत आहारो मया न भोक्तव्यः इति । अद्यायमवग्रहो ममेति मीमांसा कार्या । तदनन्तरं पुरतो युगान्तरमात्रभूभागावलोकनरतः अद्रुतं, अविलम्बितं, असंभ्रान्तं व्रजेत् प्रलम्बबाहुरविकृष्टचरणन्यासो निर्विकार ईषदवनतोत्तमाङ्गः अकर्दमेनानुदकेन अत्रसहरितबहुलेन वर्त्मना । दृष्ट्वा तु खरान्, करभान्, बलोबटन्, गजान्स्तुरगान्महिषान्सारमेयान्कलहकारिणो वा मनुष्यान्दूरतः परिहरेत् । पक्षिणो मृगाश्चाहारकालोद्यता वा यथा न बिभ्यति, यथा वा स्वमाहारं मुक्त्वा न व्रजन्ति तथा यायात् । मृदुना प्रतिलेखनेन कृतप्रमार्जनो गच्छेद्यदि निरन्तरासुसमाहितफलादिकं वागतो भवेत् मार्गान्तरमस्ति भिन्नवर्णा वा भूमि प्रविशन्स्तद्वर्णभूभाग एव अङ्गप्रमार्जन कुर्यात् । तुषगोमयभस्मबुसपलालनिचयं, दलोपलफलादिकं च परिहरेत् । निन्द्यमानो न क्रुध्येत्, पूज्यमानोऽपि न तुष्येत् । न गीतनृत्यबहुलं, उछितपताकं वा गृहं प्रविशेत् । तथा मत्तानां गृहं न प्रविशेत् । सुरापण्याङ्गनालोकहितकूलं वा, यज्ञशालां, दानशालां, विवाहगृहं, वार्यमाणानि, रक्ष्यमाणानि: अमक्तानि च गृहाणि परिहरेत । दरिद्रकूलानि उत्क्रमाढयकुलानि न प्रविशेत् । ज्येष्ठाल्पमध्यानि सममेवाटेत । द्वारमर्गलं कवाट वा नोद्धाटयेत् । बालवत्सं एलकं, शुनो वा नोल्लङ्घयेत् । पुष्पः फल:जैविकीर्णा भूमि वर्जयेत् तदानीमेव अवलिप्तां । भिक्षाचरेपु परेषु लाभार्थिषु स्थितेषु तद्गेहं न प्रविशेत् । तथा कुटुम्बिषु व्यग्रविषण्णदीनमुखेषु च समय भोजन बनता है, अथवा अमुक कुलका या अमुक मुहालका अमुक समय भोजनका है। इस प्रकार इच्छाके प्रमाण आदिसे भिक्षाका काल जानना चाहिए। तथा मेरी भूख आज मन्द है या तीव्र है इस प्रकार अपने शरीरको स्थितिकी परीक्षा करनी चाहिये। मैंने पहले यह नियम लिया था कि इस प्रकारका आहार में नहीं लँगा और आज मेरा यह नियम है इस प्रकार विचार करना चाहिए | उसके पश्चात् आगे केवल चार हाथ प्रमाण जमीन देखते हुए न अधिक शीघ्रतासे, न रुक-रुककर किसी प्रकारके वेगके विना गमन करना चाहिए। गमन करते समय हाथ लटकते हुए हों, चरण निक्षेप अधिक अन्तरालसे न हो, शरीर विकाररहित हो, सिर थोड़ा झुका हुआ हो, मार्गमें कीचड़ और जल न हो तथा त्रसजीवों और हरितकायकी बहुलता न हो। यदि मार्गमें गधे, ऊंट, बैल, हाथी, घोड़े, भैंसे, कुत्ते अथवा कलह करनेवाले मनुष्य हों तो उस मार्गसे दूर हो जाये । पक्षी और खाते पीते हुए मृग भयभीत न हों और अपना आहार छोड़कर न भागें, इस प्रकारसे गमन करे । आवश्यक होनेपर पीछोसे अपने शरीरकी प्रतिलेखना करे । यदि मार्गमें आगे निरन्तर इधर उधर फलादि पड़े हों, या मार्ग बदलता हो या भिन्न वर्णवाली भूमिमें प्रवेश करना हो तो उस वर्णवाले भूमिभागमें ही पीछीसे अपने शरीरको साफ कर लेना चाहिये । तुष, गोबर, राख, भुस, और घासके ढेरसे तथा पत्ते, फल, पत्थर आदिसे बचते हुए चलना चाहिये, इनपर पर नहीं पड़ना चाहिये। कोई निन्दा करे तो क्रोध न करे और पूजा करे तो प्रसन्न न हो । जिस घरमें गाना नाचना होता हो, झण्डियाँ लगी हों उस घरमें न जावे । तथा मतवालोंके घरमें न जावे। शराबी, वेश्या, लोकमें निन्दित कुल, यज्ञशाला, दानशाला, विवाहवाला घर तथा जिन घरोंमें जानेकी मनाई हो, आगे रक्षक खड़ा हो, सब कोई न जा सकता हो ऐसे घरोंमें नहीं जाये । दरिद्रकुलोंमें और आचारहीन सम्पन्नकुलोंमें भी प्रवेश न करे। बड़े छोटे और मध्यम गृहोंमें एक साथ ही भ्रमण करे । द्वारपर यदि सांकल लगी हो या कपाट बन्द हों तो उन्हें खोलें नहीं। बालक, बछड़ा, मेढ़ा और कुत्तेको लाँघकर न जावे। जिस भूमिमें पुष्प, फल और बीज फैले हों उसपरसे न जावे । तत्कालकी लिपी भूमिपर न जावे। जिस घरपर अन्य भिक्षार्थी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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