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________________ विजयोदया टीका ५८३ छेदण छेदने, बन्धने, वेष्टने, शोषणे प्रक्षालने च। सम्मर्दने परितापनहननादिकं भवति जीवानां ॥११५४॥ जदि वि विकिंचदि जंतू दोसा ते चेव हुंति से लग्गा । होदि य विकिंचणे वि हु तज्जोणिविओजणा णिययं ॥११५५।। 'जवि वि विविचदि' यद्यपि निराक्रियन्ते जीवास्त एव संघट्टादयो दोषा भवन्ति । भवति च पृथक्करणे तेषां तद्योनिवियोजना निश्चयेन ॥११५५।। एवमचित्तपरिग्रहगतदोषमभिधाय सचित्तपरिग्रहदोषमाचष्टे सच्चित्ता पुण गंथा वघंति जीवे सयं च दुक्खंति । पावं च तण्णिमित्तं परिगिण्हंतस्स से होई ॥११५६॥ 'सच्चित्ता पुण गंथा बधंति जीवे' परिग्रहाः दासीदासगोमहिष्यादयो म्नन्ति जीवान्स्वयं च दुःखिता भवन्ति । कर्मणि नियुज्यमानाः कृष्यादिके पापं च स्वपरिगृहीतजीवकृतासंयमनिमित्तं तस्य भवति ।।११५६॥ इंदियमयं सरीरं गंथं गेण्हदि य देहसुक्खत्थं । इंदियसुहाभिलासो गंथग्गहणेण तो सिद्धो ॥११५७।। 'इंदियमयं सरीरं' इन्द्रियमयं शरीरं। स्पर्शनादिपञ्चेन्द्रियाधारत्वात् । परिग्रहं च चेलप्रावरणादिकं इन्द्रियसुखार्थमेव गृह्णाति वातातपाद्यनभिमतस्पर्शनिषेधाय । आत्मशरीरे वस्त्रालङ्कारादिभिरलंकृते पराभिलाषमुत्पाद्य तदङ्गासंगजनितप्रीत्यथितया अभिमत मापादयति । सेवनाद्यथं च तत् इन्द्रियसुखाभिलाषो ग्रन्थं गृह्णतः सिध्यति ॥११५७॥ फाड़ने, झाड़ने, छेदने, बाँधने, ढाँकने, सुखाने, धोने, मलने आदिमें जीवोंका घात आदि होता है ॥११५३-५४॥ ___ गा०-यदि वस्त्रादि परिग्रहसे जन्तुओंको अलग किया जाये तब भी वे ही दोष लगते हैं। क्योंकि उन जन्तुओंको दूर करनेपर उनका योनिस्थान छूट जाता है और इससे उनका मरण हो जाता है ॥११५५॥ इस प्रकार अचित्त परिग्रहके दोष कहकर सचित्त परिग्रहके दोष कहते हैं गा०-दासी-दास, गाय-भैंस आदि सचित्त परिग्रह जीवोंका घात करते हैं और स्वयं दुखी होते हैं। तथा उन्हें खेती आदि कामोंमें लगानेपर वे जो पापाचरण करते हैं उसका भागी उनका स्वामी भी होता है ॥११५६।।। ___ इन्द्रिय सुखकी अभिलाषा कर्मबन्धमें निमित्त होती है अतः मुमुक्षुको उसे छोड़ना चाहिए। परिग्रह स्वीकार करनेपर इन्द्रिय सुखकी अभिलाषा अवश्य होती है, यह कहते हैं गा०-टी-शरीर इन्द्रियमय है क्योंकि स्पर्शन आदि पांच इन्द्रियोंका आधार है। वस्त्र ओढ़ना आदि परिग्रह मनुष्य इन्द्रियजन्य सुखके लिए ही ग्रहण करता है। ऐसा वह हवा धूप आदिके अनिष्ट स्पर्शसे बचनेके लिए करता है। तथा वस्त्र अलंकार आदिसे अपने शरीरको १. विविचदि-अ० आ० मु० । २, मतं व्याघातारः सेवना-अ० ज० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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