SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदया टीका विडाए अवियडाए समविसमाए वहिं च अन्तो वा । इत्थिणउंसयपसुवज्जिदाए सीदाए उसिणाए || २३१|| 'वियडाए' उद्घाटितद्वारायां । 'अवियडाए' अनुद्घाटितद्वारायां वा । 'समविसमाए' समभूमिसमन्वितायां विषमभूमिसमन्वितायां वा । 'बहि व' वहिर्भागे वा । 'अन्तो वा' अभ्यन्तरे वा । 'इत्थिणसयपसुवज्जिदाए' स्त्रीभिर्नपुंसकं पशुभिश्च वर्जितायां वसतौ । 'सीदाए' शीतायां । 'उसिणाए' उष्णायां ॥२३१॥ उगम उप्पादण सणाविसुद्धाए अकिरियाए दु । वसति असंसत्ताए णिप्पाहुडियाए सेज्जाए || २३२|| 'उग्गम उप्पादण एसणाविसुद्धाए' उद्गमोत्पादनेपणादोषरहितायां । तत्रोद्गमो दोषो निरूप्यते । वृक्षच्छेदस्तदानयनं इष्टकापाकः, भूमिखननं, पापाणसिकतादिभिः पूरणं, धरायाः कुट्टनं, कर्दमकरणं, कीलानां करणं, अग्निनाय सस्तापनं कृत्वा प्रताड्य क्रकचैः काष्ठपाटनं वासी भिस्तक्षणं, परशुभिरच्छेदनं इत्येवमादिव्यापारेण षण्णां जीवनिकायानां बाधां कृत्वा स्वेन वा उत्पादिता, अन्येन वा कारिता वसतिराधाकर्मशब्देनोच्यते । यावन्तो दीनानाथकृपणा आगच्छन्ति लिङ्गिनो वा तेषामियमित्युद्दिश्य कृता, पापंडिनामेवेति वा श्रमणानामेवेति, निर्ग्रन्थानामेवेति सा उद्देसिंगा वसदित्ति भण्यते । आत्मार्थं गृहं कुर्वता अपवरकं संयतानां भवत्विति कृतं अभोवन्भमित्युच्यते । आत्मनो गृहार्थमानीतैः काष्ठादिभिः सह वहुभिः श्रमणार्थमानीताल्पेन मिश्रिता यत्र गृहे तत्पूतिकमित्युच्यते । पाषण्डिनां गृहस्थानां वा क्रियमाणे गृहे पश्चात्संयतानुद्दिश्य काष्ठादिमिश्रणेन निष्पादितं वेश्म मिश्रम् । स्वार्थमेव कृतं संयतार्थमिति स्थापितं ठविदं इत्युच्यते । संयतः स च यावद्भिदि गा० - वह वसति खुले द्वार वाली हो अथवा वन्द द्वार वाली हो । अथवा ऊँची नीची हो । वह बाहरके भाग में हो अथवा अन्दरके भागमें हो पशुओंसे रहित हो ठंडी हो या गर्म हो ॥२३१॥ Jain Education International २४५ गा० ... उद्गम उत्पादन और एषणा दोषोंसे रहित, दुःप्रमार्जन, आदि संस्कारसे रहित, जीवों की उत्पत्तिसे रहित, शय्यारहित वसतिकामें अन्दर या बाहर में विविक्त शयनासन तपके धारी मुनि निवास करते हैं ||२३२ ॥ टी० – उद्गमदोषको कहते हैं - वृक्षको काटना, उसको लाना, ईटे पकाना, भूमि खोदना, उसे पत्थर रेत वगैरहसे भरना, पृथ्वीको कूटना, कीचड़ तैयार करना, कीले बनाना, आग से लोहा गरम करके उसे पीटकर करोतोंसे लकड़ी चीरना । विसौलोंसे छीलना, फरसोंसे काटना, इत्यादि व्यापारसे छहकायके जीवोंको बाधा पहुँचाकर अपने द्वारा बनाई या दूसरे से बनवाई वसति अधःकर्मनामक दोषसे युक्त है । जितने दीन अनाथ दरिद्र अथवा वेषधारी आयेंगे उनके उद्देससे बनाई, अथवा यह पाषडियोंके ही लिए हैं, या श्रमणोंके ही लिए हैं या निर्ग्रन्थोंके ही लिए है, ऐसी वसति उद्देसिंग दोष से युक्त होती है । अपने लिए घर बनाते हुए यह कोठरी संयमियोंके लिए रहे ऐसा संकेतपूर्वक बनाई वसतिका अब्भोलब्भ कहलाती है । अपना घर बनानेके लिए लाए गये बहुत से काष्ठ आदिके साथ थोड़ा-सा सामान श्रमणोंके लिए लाकर दोनोंके मेलसे बनी वसति पूतिक कही जाती है । पाषण्डियों अथवा गृहस्थोंके लिए घर बनवाकर पीछे मुनियोंका उद्देश करके उसमें काष्टआदि मिलाकर बनवाई वसति मिश्रदोषसे दूषित है । अपने ही लिए For Private & Personal Use Only उसकी भूमि सम हो । स्त्री नपुंसक और www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy