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________________ ७० भगवती आराधना सुत्तं गणधरगथिदं इति । सुत्तं सूत्रं । गणशब्देन द्वादशगणा उच्यते । तान्धारयन्ति इति गणधराः । दुर्गतिप्रस्थिता हि तेन रत्नत्रयोपदेशेन धार्यन्ते ते सप्तविद्धिमुपगताः । उक्तं च बुद्धितविगुव्वणोसधिरसबलं च अक्खीणं ॥ सत्तविष इड्ढिपत्ता गणधरदेवा णमो तेसि ॥ [ ] इति । तैः 'गथिदं' ग्रथितं संदब्ध। केवलिभिरुपदिष्टं अर्थ ते हि अथ्नन्ति । तथाभ्यधा यि--'अत्थं कहति अरुहा गंथं गंथंति गणधरा तेसि । 'तहेव' तथैव । 'पत्तयबुद्धगधिवं' च प्रत्येकबुद्धग्रथितं च । श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमात् परोपदेशमंतरेणाधिगतज्ञानातिशयाः प्रत्येकबुद्धाः । 'सुदकेवलिणा' समस्तश्रुतधारिणा कथितं चेति । अभिन्नदसपुविकधिदं च । दशपूर्वाण्यधीयमानस्य विद्यानुप्रवादस्थाः क्षुल्लकविद्या महाविद्याश्च अंगुष्ठप्रसेनाद्याः प्रज्ञप्त्यादयश्च तैरागत्य रूपं प्रदर्य, सामर्थ्य स्वकर्माभाष्य पुरः स्थित्वा आज्ञाप्यतां किमस्माभिः कर्तव्यमिति तिष्ठति । तद्वचः श्रुत्वा न भवतीभिरस्माकं साध्यमस्तीति ये वदन्ति अचलितचित्तास्ते अभिन्नदशपूर्विणः । एतेषामन्यतमेन ग्रथितं सूत्रं प्रमाणं । प्रमाणेन केवलेन श्रुतेन वा गृहीतमर्थ अरक्तद्विष्टाः संतो यदुपदिशंति ततस्तद्वचसां प्रामाण्यं इति भावः । प्रमाणपरिदृष्टार्थगोचरं अरक्तद्विष्टवक्तृप्रभवं वचः प्रमाणं । यथा पितुररक्तद्विष्टस्य स्वप्रत्यक्षगोचरं वचः घटोऽयं रक्त इति । तथा च गणधरादीनां वचः प्रमाणं परिदृष्टार्थगोचरं अरक्तद्विष्टवक्तृप्रभवम् । ____टी०-गण शब्दसे बारहगण कहे जाते हैं। जो उन्हें धारण करते हैं वे गणधर हैं । अर्थात् दुर्गतिके मार्ग पर चलते हुए गणोंको रत्नत्रयके उपदेश द्वारा धारण करते हैं उन्हें सम्यग्दर्शनादिमें स्थापित करते हैं। वे गणधर सात प्रकारकी ऋद्धियोंको प्राप्त होते हैं। कहा है--बुद्धिऋद्धि, तपऋद्धि, विक्रियाऋद्धि, औषधिऋद्धि, रसऋद्धि, बलऋद्धि, और अक्षीणऋद्धि इन सात प्रकारकी ऋद्धियोंको प्राप्त गणधरदेव होते हैं । उन्हें नमस्कार हो । वे गणधर केवलियोंके द्वारा उपदिष्ट अर्थको ग्रन्थरूपं गूथते है। कहा है-अरहन्त अर्थको कहते हैं और उनके गणधर उसे ग्रन्थका रूप देते हैं। श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे परोपदेशके बिना जो ज्ञानातिशयको प्राप्त होते हैं वे प्रत्येकबुद्ध हैं। जो समस्त श्रुतके धारी होते हैं वे श्रुतकेवली हैं । दश पूर्वोका अध्ययन करते हुए दसवें पूर्व विद्यानुवादमें स्थित अंगुष्ट प्रसेना आदि क्षुल्लक विद्याएँ और प्रज्ञप्ति आदि महाविद्याएँ आकर अपना रूप दिखाकर और अपनी शक्ति कहकर सामने खड़ी होकर निवेदन करती हैं कि हमारे योग्य कार्य बतायें । उनके वचन सुनकर जो कहते हैं कि हमें आपसे कोई काम नहीं है, वे अचल चित्त वाले अभिन्न दसपूर्वी होते हैं। इनमेंसे किसी द्वारा रचा गया सत्र प्रमाण है। केवल ज्ञानरूप अथवा श्रतज्ञानरूप प्रमाणसे द्वारा गहीत अर्थको रागद्वषसे रहित होकर कहते हैं इस लिये इनके वचन प्रमाण हैं। जो वचन प्रमाणके द्वारा देखे गये अर्थको कहते हैं और रागद्वषसे रहित वक्तासे उत्पन्न होते हैं वे प्रमाण हैं। जैसे रागद्वषसे रहित पिताके द्वारा स्वयं प्रत्यक्षसे जानकर कहे गये वचन 'यह घड़ा लाल है' प्रमाण है । उसी तरह गणधर आदिके वचन प्रमाण हैं क्योंकि अच्छी तरहसे देखे गये अर्थको कहते हैं और रागद्वेषसे रहित वक्तासे उत्पन्न हुए हैं ॥३३॥ १. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं ।--आव०नि० ९२ । २. रक्ष्य इति आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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